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मजदूरों के साथ सोशल डिस्टेनसिंग ??

चित्रकार-मुस्तफ़ा जैकब(इजिप्ट)

24 मार्च की रात को 21 दिन के लिए देश को लॉकडाउन करने की घोषणा की गयी. वजह ये बताई गयी कि देश को कोरोना के जानलेवा प्रभाव से बचाने के लिए यह उपाय किया गया है. लेकिन दो दिन बीतते न बीतते हजारों-लाखों के रेले में सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर अपने घरों को निकलते मजदूरों की खबरें और तस्वीरें आम हो गयी.

लॉकडाउन के ऐलान के बाद सड़कों पर जो हतभागे लोगों का रैला निकल पड़ा है,पुलिस से पिटता,अपमानित होता उसे देख कर बरबस यह सवाल मन में आता है कि अगर यह लॉकडाउन देश को कोरोना के कहर से बचाने के लिए है तो उस देश में इन मजदूरों की गिनती क्यूँ नहीं है ? सत्तापक्ष के एक पूर्व सांसद ने सारा ठीकरा इन मजदूरों के सिर फोड़ते हुए कह डाला ये गैर जिम्मेदार लोग हैं जो स्थिति की भयावहता को न समझ कर छुट्टी मनाने निकल पड़े हैं.वे अपने ट्वीट में कहते हैं कि उनके घर में कौन सी नौकरी है जो उनका इंतजार कर रही है ! यही देश के खाये-पिये-अघाए वर्ग का चिंतन है. वह कह रहा है कि गरीब मजदूरों को तो मरना ही है,पर ऐसा करके वे अन्य की जान क्यूँ खतरे में डाल रहे हैं ! भूख और कोरोना में से मौत से मरने में, खुले तौर पर कह दिया जा रहा है कि भूख से बेशक मर लो,वो तो साल-दर-साल तुम मरते ही रहे हो,लेकिन कोरोना से न मरो क्यूंकि उसकी चपेट में मध्य वर्ग और खाये-पिये-अघाए वर्ग के आने का खतरा उत्पन्न हो जाता है. 
ये जो भूखों को भी कोरोना से बचने के लिए लॉकडाउन होने की सलाह दे रहा है और वो जिनके लिए कोरोना के कहर से पहले भूख का कहर सामने खड़ा है,क्या एक ही देश का हिस्सा हैं ? क्या कोरोना के बजाय भूख से मरने के लिए प्रस्तुत होना ही इन गरीबों का राष्ट्रीय हित है ? कोरोना के संदर्भ में जिसे सोशल डिस्टेनसिंग यानि सामाजिक दूरी कहा जा रहा है, वह असल रूप में तो यहाँ दिखाई दे रही है. मध्य वर्ग का अच्छा खासा हिस्सा और समाज का ऊपरी तबका,रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले इस तबके से कोरोना के बगैर भी जीवन पर्यंत सोशल डिस्टेनसिंग कायम किए रहता है. यह सामाजिक दूरी न होती तो नीति बनाने वाले कोरोना के साथ ही भूख से बचाव के उपाय की भी चिंता करते. 


                                                                        कार्टून क्रेडिट-न्यूज़ 18 
यह सामाजिक दूरी न हो तो हर साल सीवर में मरने वालों की मृत्यु उस तबके को विचलित करती,जिनकी गंदगी की सफाई करने के लिए कुछ लोगों को सीवर में उतरना पड़ता है. 3 दिसंबर 2019 को संसद में सरकार ने बताया कि चार साल में 282 लोग सीवर में मर गए. क्वार्टज इंडिया नामक वेबसाइट ने 2017 में लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद से मरने वालों के मुक़ाबले देश में सीवर के अंदर मरने वालों की संख्या ज्यादा है. उस वर्ष जिस वक्त उक्त वेबसाइट ने वह रिपोर्ट लिखी तब तक आतंकवादियों से लड़ते हुए “शहीद” होने वाले जवानों की संख्या 54 थी और सीवर में “मरने” वालों की संख्या 90 !

यह  सोशल डिस्टेनसिंग का ही तो कमाल है कि हर साल हजारों की तादाद में किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या करते हैं और किसी की पेशानी पर शिकन तक नहीं पड़ती. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2018 में ही दस हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. 2008 से 2015 के बीच में आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद 1.14 लाख है. लेकिन यह हमारे समाज में पहले से व्याप्त सोशल डिस्टेनसिंग है,जिसकी वजह से समाज के प्रभावशाली हिस्से और मध्य वर्ग के लिए इतनी बड़ी तादाद में आत्महत्यायेँ सिर्फ संख्या भर हैं. कुछ वक्त पहले बी.बी.सी ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि किसानों की आत्महत्याओं की इतनी बड़ी संख्या यदि किसी और देश में हुई होती तो पूरा देश हिल जाता. लेकिन यहाँ हिलना छोड़िए देश ने उस आंकड़े की तरफ नजर उठा कर भी नहीं  देखा. 

और जब दुनिया भर में कोरोना का खौफ फैला तो आनन फानन में देश पर ताला लगाने की घोषणा के बीच देश में पहले से व्याप्त सोशल डिस्टेनसिंग का ही कमाल था कि यह नीति-नियंताओं की समझ में ही नहीं आया कि देश में एक बड़ा तबका ऐसा है,जिसके लिए सबसे बड़ी महामारी-भूख है. आप कहते हैं,वो तबका गैरजिम्मेदार है,भूख की फिक्र नहीं छोड़ रहा है ! जनाब नीति बनाने वाले ज्यादा गैरजिम्मेदार हैं,जिन्हें भूख के कहर का अंदाजा नहीं है. मजदूरी करने वालों के कल्याण के लिए इस देश में दस लाख रुपये से अधिक के हर प्रोजेक्ट पर सैस लिया जाता है. वह पैसा सरकारों के खजाने में है. जानते हैं कितना पैसा है,वह ? बीते वर्ष अप्रैल में इंडिया स्पेंड नामक वैबसाइट ने बताया कि 1996 से 2018 तक मजदूर कल्याण सैस के नाम पर 38 हजार करोड़ रुपये से अधिक इकट्ठा हुआ. पर 2018 में श्रम संबंधी संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि इसका एक चौथाई हिस्सा ही मजदूरों तक पहुंचा. बाकी सब बिना खर्च किए सरकारों के खजाने में जमा है. 

यह हो सकता था कि देश पर ताला लगाने से पहले इस पैसे से सड़कों पर बदहवास हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए निकले,पुलिस द्वारा पीटे जाते,जानवरों की तरह कीटनाशक से नहलाए जाते इन हतभागे लोगों के लिए सैस के पैसे से ही खाने-रहने का बंदोबस्त कर दिया जाता.  पर यह तो तब होता न,जब राष्ट्र के भाग्य विधाताओं की दृष्टि उन तक पहुँच पाती ! 

एक जमाने में दुष्यंत कुमार ने लिखा कि- 


“भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुदद्आ”

दिल्ली और उसके मानस कारिंदे पूरे देश में दुष्यंत कुमार के इस तंज़ को हकीकत में सलाह के तौर पर पेश कर रहे हैं. 

दुष्यंत कुमार तो कहते हैं कि- 

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ 
इस वारदात के समय खिड़कियाँ तो खुल रही हैं पर जो वारदात के शिकार हैं,उनके लिए ही हिकारत और गालियों की बौछार निकल रही है,वहाँ से. माफ कीजिएगा जनाब,आपकी देश की परिभाषा बड़ी संकुचित है. आपकी गालियों के साथ छूटते थूक और मुंह से निकलते झाग से ये देश नहीं बनता. यह इन मजदूरों के पसीने से ही बनता है,उसे जब भी बनाने की, खड़ा करने की जरूरत पड़ेगी तो इनका ही श्रम लगेगा,इनका ही पसीना चाहिए होगा !
 

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