उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से लगभग 80
किलोमीटर दूर धराली में कल 5 अगस्त 2025 को जो मंज़र दिखाई दिया, वो किसी को भी
दहला देने वाला था.
दोपहर डेढ़ बजे के आसपास, खीरगंगा या
खीरगाड़ जो भी उसे कहिए, उसमें
पानी और मलबे का तेज़ ज़लज़ला आया और उसने लगभग पूरे धराली कस्बे को लील
लिया. उसके बाद हर्षिल के आर्मी कैंप और हेलीपैड को नुकसान होने की खबरें आई.
सुक्खी में भी भारी जल प्रलय के वीडियो सामने आए. धराली में चार लोगों के मारे
जाने और लगभग 50 लोगों के लापता होने की प्रारंभिक जानकारी उत्तरकाशी के जिला
प्रशासन ने दी. हालांकि तबाही की व्यापकता को देखते हुए यह संख्या इससे कई गुना
ज्यादा होने की आशंका है.
कल 5 अगस्त के बाद आज 6 अगस्त 2025 को भी पूरे
उत्तराखंड में ही मूसलाधार बारिश का सिलसिला जारी है. जगह- जगह राष्ट्रीय राजमार्ग
समेत सड़कों के अवरुद्ध होने, पुलों के बहने आदि की खबरें
हैं.
खबर है कि गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित होने के
चलते धराली तक सड़क से पहुँचना संभव नहीं है.
उत्तराखंड या किसी भी पहाड़ी क्षेत्र में अतिवृष्टि, बादल फटना, भूकंप, भूस्खलन
जैसी घटनाएं कष्टकारी लेकिन वांछित ही हैं. वे होंगी ही. बीते कुछ सालों में फ्लैश
फ्लड यानि अचानक बाढ़ जैसे हालात भी लगातार घटित होने वाली परिघटना बन गयी है. वैज्ञानिकों
का मत है कि ग्लोबल वार्मिंग ने पर्वतीय क्षेत्रों में मौसम की अनिश्चितता और
आपदाओं की तीव्रता को बढ़ा दिया है.
लेकिन सवाल यह है कि ऐसी त्रासद स्थितियों से निपटने
के लिए क्या हमारी सरकारों और नीति नियंताओं के पास कोई योजना है ? उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन का एक विभाग है. 2005 में जब आपदा प्रबंधन का
मंत्रालय बनाया गया था तो इसका विज्ञापन बड़े ज़ोरशोर से किया गया था कि उत्तराखंड
पहला राज्य है, जिसने आपदा प्रबंधन का मंत्रालय बनाया है. लेकिन
आपदा प्रबंधन मंत्रालय बनने के बीस वर्षों के बाद भी आपदा से निपटने की क्या कोई
दूरगामी योजना है ? शायद नहीं ! बल्कि जिस समय आपदा आती है, उस समय सिर्फ आपदा ही आपदा आती है और प्रबंधन आपदा के बीत जाने के बाद
शुरू होता है ! वह प्रबंधन काहे को होता है, यह किसी से छुपा
नहीं है ! आपदा से पैदा हुए अवसर का प्रबंधन ही अधिक होता है.
2013 की आपदा या उससे पहले से भी अर्ली वार्निंग
सिस्टम (पूर्व चेतावनी तंत्र) का चर्चा उत्तराखंड में सुना जाता रहा है. कुछ
डॉप्लर रडार लगने की बात भी सामने आई. लेकिन 2013, 2021, 2025 में कहीं भी कोई पूर्व चेतावनी मिली हो, ऐसा
तो सुना नहीं गया.
हालांकि किसी भी पहाड़ की बसासत को देख लीजिये, खास तौर पर शहरी बसासत को तो वो अपने आप में चेतावनी देती ही प्रतीत होती
है. गांवों से पलायन के साथ निरंतर फैलते शहरी केन्द्रों को देखिये. सड़क पर खड़े हो
कर, ऊपर पहाड़ की ढलान पर बने बहुमंजिला इमारतों पर नज़र डालने
पर लगता है कि उनका बड़ा हिस्सा तो झूलने जैसे अवस्था में है,
जिसके किसी भी तेज झटके से जमीन पर आने का खतरा प्रतीत होता है. लेकिन पूरी
पर्वतीय क्षेत्र में शहरों में ऐसे विशालकाय भवन लगातार बनते रहते हैं या फिर नदी
में घुसकर, नदी और जलधाराओं के मुहाने पर निर्माण कार्य हो
रहे हैं ! और सरकार सिर्फ उन शहरों का
दर्जा बढ़ाती रहती है- नगर पंचायत से नगर पालिका और नगर पालिका से नगर निगम ! बाकी
इन निरंतर फैलते, आपदा के नए उभरते “सॉफ्ट टारगेट्स” पर
सरकार बहादुर की नज़र ही नहीं जाती !
जून 2013 में केदारनाथ के साथ ही उत्तराखंड के कई
हिस्सों में भीषण आपदा आई. केदारनाथ में ही कितने लोग मारे गए, इसकी संख्या तक ठीक से सामने नहीं आई. उस आपदा की जितनी तीव्रता थी, उससे लगा कि सरकारें और नीति-नियंता, उससे जरूर सबक
सीखेंगे. लेकिन आज 12 साल बाद देखें तो लगता नहीं है कि कोई सबक सीखा गया है !
2013 में आपदा की विभीषिका की तीव्रता को बढ़ाने के
कारक के तौर पर उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजना के बेतहाशा निर्माण को चिन्हित
किया गया था. उच्चतम न्यायालय ने भी जलविद्युत परियोजनाओं को आपदा की विभीषिका
बढ़ाने वाला कारक मानते हुए 24 निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी.
उच्चतम न्यायालय की पाबंदी के दो-एक वर्षों के बाद ही
सरकारों ने यह कोशिश शुरू कर दी कि जैसे भी हो इन परियोजनाओं पर लगी पाबंदी को
हटवाया जाए.
इनमें से 7 परियोजनाओं को शुरू करवाना तो जैसे लगता
है कि वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का प्रमुख एजेंडा है. उन परियोजनाओं
से कितनी बिजली बनेगी और राज्य को कितना फायदा होगा, इसका आंकड़ा
वो केंद्र सरकार को जा-जा कर हर दूसरे-तीसरे महीने में बताते हैं. लेकिन उन
परियोजनाओं से किसी तरह की तबाही से बचाव का क्या इंतजाम है,
इसको लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं है. यह तबाही से बचने के इंतजाम की चर्चा इसलिए
जरूरी है क्यूंकि 2013 में तबाही में इन परियोजनाओं की भूमिका को देखते हुए ही तो
उच्चतम न्यायालय ने इनपर रोक लगाई थी.
2017 के विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी, देहरादून आए और उन्होंने एक “ऑल वेदर रोड”
का जुमला उछाला. ऑल वेदर रोड कोई नयी सड़क बनाने की परियोजना नहीं थी, बल्कि पहले से बनी लगभग साढ़े आठ सौ किलोमीटर सड़कों को चौड़ा करने की
परियोजना थी. बारह हज़ार करोड़ रुपए से सड़कों को चौड़ा करने की इस परियोजना में पचास
हज़ार से ज्यादा पेड़ काटे गए. इस परियोजना के चलते भूस्खलन के नए क्षेत्र, पूरे पहाड़ में बन गए हैं, जहां पहाड़ से मलबा गिरकर
सड़क को किसी भी मौसम में बाधित कर देता है. इसलिए शायद चुपचाप इस ऑल वेदर रोड का
नाम बदल कर चार धाम परियोजना कर दिया गया. उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी में
सरकारी और विशेषज्ञ सदस्य, इस बात पर एकमत थे कि सड़क को चौड़ा
करने का यह काम बेहद अवैज्ञानिक और अनियोजित तरीके से किया जा रहा है और इसके चलते
भूस्खलन के डेढ़ सौ से अधिक नए जोन बन रहे हैं. केंद्रीय सड़क और राजमार्ग मंत्री नितिन
गडकरी ने संसद में लगभग डींग हाँकने वाले अंदाज में कहा कि कैसे रक्षा का एंगल जोड़
कर, उन्होंने अदालत से उक्त सड़क को पारित करवा दिया.
रक्षा के नाम से पारित करवायी गयी यह सड़क, रैणी के पास नीति बार्डर को जाने वाले रास्ते पर बाधित है. इसके अलावा भी
ढेर सारी जगहों पर इसकी जर्जर हालत है. खुद उत्तरकाशी जिले में धराली से पहले ही
भटवाड़ी के आगे सड़क बंद है.
धराली के साथ ही हर्षिल इस आपदा का शिकार बना है. उसी
हर्षिल से लेकर गंगोत्री तक सड़क को चौड़ा करने की गडकरी और मोदी की महत्वाकांक्षी
परियोजना के छह हज़ार से अधिक देवदार के पेड़ों को चिन्हित किया गया है !
पर्यावरण, प्रकृति और
परिस्थितिकी पर विकास के नाम पर यह हमला ही है, जो इस तरह की
भीषण तबाहियों की तीव्रता को कई गुना अधिक बढ़ा देता है. आपदा के समय हेलीकॉप्टर से
मौका-मुआयना करने वालों की धरातल की स्थितियों से दूरी, उनके
हेलीकॉप्टर और जमीन की दूरी से कहीं अधिक होती है.
इसलिए जिसे वो विकास कहते, समझते हैं, उससे मुनाफा बटोरते हैं, वही धरातल पर विनाश साबित होता है.
-इन्द्रेश
मैखुरी
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