सत्ता अपने मोहरे अलटती- पलटती रहती है. कई बार सिर्फ इसलिए बदलती है कि साहिब- ए- मसनद बोर हो गए एक ही मोहरे से ! मोहरे की एक ही भंगिमा (posture) थी- साहिब- ए- मसनद के सामने - कमर, रीढ़ की हड्डी के साथ झुकी हुई. यह भंगिमा इतनी स्थाई थी कि सोते हुए भी यह भंग नहीं होती थी !
धनुषाकार झुकाव वाला मोहरा और उस धनुष से सफलतापूर्वक लोकतंत्र, संविधान पर कई बाण छोड़े गए.
यह धनुषाकार झुकाव ही मोहरे की तपस्या थी. मोहरा भी साहिब- ए- मसनद का जुमला दोहरा सकता है- शायद मेरी तपस्या में कुछ कमी रह गयी.
इतने झुकाव या कहिए कि लोटने की हद तक के झुकाव के बावजूद साहिब-ए- मसनद ऊब गए. आखिर एक ही आदमी को, एक ही भंगिमा में कोई कब तक देखे, जबकि झुकने, लोटने, गिरने वालों की कोई कमी न हो.
सो मोहरा बदल दिया गया. दिल का मर्ज तो दुरुस्त हो जाएगा पर झुकने, लोटने के मर्ज का क्या ?
नए मोहरे के सामने चुनौती बस यही है- झुकने, लोटने, गिरने का नया कीर्तिमान स्थापित करे !
-इन्द्रेश मैखुरी
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