मैसेज आया कि देहरादून के राजपुर रोड पर जाखन में कैफे लाटा
में शाम को नाटक होगा. राजपुर रोड जैसे पॉश, अभिजात्य इलाके में नाटक और वो भी एक
अंग्रेजी किस्म के नाम वाले कैफे में ! कैफे का नाम अंग्रेजी टाइप और नाटक गढ़वाली
में ! अंग्रेजी का कैफे लाटा या लाता, पता नहीं क्या सही उच्चारण है, अंग्रेजी में
तो लिखा है- Cafe Laata !
पर चूंकि नाटक गढ़वाली में है तो लगा कि गढ़वाली का लाटा भी
हो सकता है, वैसा भी जैसा भैजी निरंजन सुयाल कहते हैं :
“माछी पकड़, माछी पकड़ डौंका,
लाटा- काला जन भी होला
छा हमारा गौं का ! “
चूंकि ये कैफे था,
कोई औपचारिक नाटक का स्टेज नहीं तो यहां स्टेज जैसी थोड़ी सी ऊंची संरचना थी. लेकिन
उसके बावजूद नाटक का जो अभिनय क्षेत्र था, वो तो सिर्फ उस स्टेज नुमा जगह तक सीमित
नहीं था. इसके चलते हुआ यह है कि शुरुआत में एक मौका ऐसा था कि जब नाटक के मुख्य किरदार
और पहली पंक्ति के बांयें कोने पर बैठे दर्शक की स्थिति लगभग एक-दूसरे में समाहित
हो जाने जैसे थी, कौन अभिनेता- कौन दर्शक, अचानक देखें तो भेद करना मुश्किल !
रंगमंच और अभिनेता, अपने दर्शक के इतना करीब पहुंच जाए, यह भी बिरला ही दृश्य था !
बहरहाल यहां जिस नाटक का कैफे लाटा में होने का जिक्र चल
रहा था, उसका नाम है- बर्फ. मूल रूप से यह
नाटक हिंदी में लिखा गया है और इसके लेखक हैं, हिंदी फिल्मों के चर्चित अभिनेता,
पटकथा लेखक सौरभ शुक्ला ने. इसका गढ़वाली अनुवाद किया- बद्रीश छाबड़ा ने. नाटक के
निर्देशक हैं, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के परास्नातक, सुपरिचित रंगकर्मी
और “कला दर्पण” के संस्थापक डॉ सुवर्ण रावत ने.
नाटक में तीन पात्र हैं, एक डॉक्टर और एक पति-पत्नी, जो एक
दूरस्थ पहाड़ी गांव में रहते हैं, जो लगभग निर्जन है. पति गाड़ी चलाता है, पत्नी गृहणी
है. पहला दृश्य जहां से शुरू होता है, वहां से अभिनेताओं का अभिनय तो आश्वस्तकारी
है पर कहानी एक खास तरह की कशमकश पैदा करती है. ड्राइवर बना पात्र जिसका नाटक में
जगदीश नाम है, वो डॉक्टर सिद्धार्थ नाम वाले किरदार को अपने गांव ले जा रहा है. दोनों
पात्रों की बातचीत से पता चलता है कि जगदीश की पत्नी उषा ने यह जानने के बाद कि
जगदीश के साथ कोई डॉक्टर है, उसे अपने बेटे संजू के इलाज के लिए अपने गांव लाने को
कहा. इस दूरस्थ-दुर्गम पहाड़ी गांव की तरफ डॉ. सिद्धार्थ को लेकर जगदीश जा रहा है
और डॉक्टर से कह रहा है कि आपको मेरी पत्नी की बात नहीं माननी चाहिए थी. यह तो
थोडा अजीब लगता है कि अगर इसकी पत्नी कह रही है कि बेटा बीमार है तो ये क्यों नहीं
चाहता कि डॉक्टर उस बेटे का इलाज करने गांव आये ! बहरहाल नाटक आगे बढ़ता है तो समझ
में आता है कि बेटा तो कोई है ही नहीं, उसका आभास मात्र है, एहसास भर है, एक
गुड्डे को बेटा मानकर उषा, उसके बड़े होने से लेकर बीमार होने तक की कल्पना बुन रही
है ! एक निर्जन से गांव में खुद को बहलाए रखने के लिए उसके पास न केवल गुड्डे को
बेटा समझने का अहसास है, बल्कि गांव के खाली मकानों के दुनिया से गुजर चुके वाशिंदों
को भी वह अपने साथ महसूस करती है, उनसे बोलती-बतियाती है ! डॉक्टर समझता कि उषा तो
एक मनोवैज्ञानिक रोग से ग्रसित है, वह उसे इलाज कराने के लिए प्रेरित करना चाहता
है, सच से उसका सामना कराने की कोशिश भी करता है. लेकिन सच से सामना कराने की
कोशिश उसे भारी पड़ती है और उषा उसपर ही हमलावर हो उठती है.
नाटक अमूर्तता और क्रूर यथार्थ के बेचैन करने वाले मोड़ों से
गुजर कर आगे बढ़ता है. इस कदर बेचैनी और उद्दिग्नता पैदा करता है कि लगने लगता है
कि जैसे भी नाटक अपने मुकाम पर पहुंचे तो डॉक्टर, जगदीश, उषा को कुछ राहत मिले और
दर्शक भी इस राहत के अहसास में शरीक हो सकें !
यूं यह नाटक एकाकीपन से जूझ रहे किसी एक जोड़े या परिवार की त्रासद कहानी भी हो सकती है, जिनके एकाकीपन कि इंतहा यह है कि वो गुड्डे को बेटा मान लें और दुनिया से जा चुके लोगों को अपना संगी- साथी ! लेकिन पहाड़ के ख़ास संदर्भ में यह उस त्रासदी का भी वर्णन है, जिसे परिभाषित करने के लिए पलायन जैसा शब्द कभी-कभी नाकाफी जान पड़ता है. आखिरकार बंजर होते खेतों, खंडहर होते घरों और भुतहा का तमगा पाते गांवों को, सिर्फ पलायन जैसे शब्द की सीमा में कैसे समेट दें ! बाघ के आतंक और उसके हमलावर होने का जिक्र नाटक में आता ही रहता है, खाली होते हमारे गांवों का एक यथार्थ तो जंगली जानवरों का आतंक भी है ही !
“घौर भि त बुबा जनु” यानि घर भी तो बाप जैसा है या “लाइट अर
चुल्ला नि जलो त घौर मरी जांदू” अर्थात लाईट और चूल्हा न जले तो घर मर जाता है या
फिर “हम भी चली जाला त हमारो घौर कनके रौलो यखुली” मतलब हम भी चले जायेंगे तो हमारा घर कैसे रहेगा अकेला ! नाटक के ये
संवाद सिर्फ जगदीश और उषा के तो नहीं हो सकते, ये तो पूरे पहाड़ को कचोटते हैं !
नहीं कचोटते तो केवल नीति नियंताओं को !
नाटक उषा और जगदीश के त्रासद जीवन के कहानी तो कहता ही है, डॉक्टर
के जीवन की त्रासदी की थोड़ी झलक दिखलाता है, आधुनिक समय में भी समाज को जकड़े जाति
के जटिल सवाल पर भी प्रकारांतर से कुछ कहने की कोशिश करता है. कुछ चुटीले प्रसंग
या संवाद भी हैं, नाटक में, जैसे कि “बड़ा
मनखी बार-बार कपड़ा बदलदा” यानि बड़े आदमी बार-बार कपड़े बदलते हैं तो यह सुनते ही
सहसा “बारात हो या वारदात”, हर मौके पर बार-बार कपड़े बदलते बहुत बड़े मनखी का ख्याल
बरबस ही आ जाता है !
नाटक में उषा का किरदार निभाया आरती शाही ने, जगदीश का
पात्र अभिषेक डोभाल और डॉ. सिद्धार्थ की भूमिका डॉ. सुवर्ण रावत ने निभाई. तीनों
ने अपने अभिनय से अपने किरदारों के साथ पूर्ण न्याय किया.
-इन्द्रेश मैखुरी




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