तीन किसानों विरोधी क़ानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन को दिल्ली पहुँचने से रोकने के लिए सड़कें खोदने और बैरिकेडिंग जैसा शत्रुतापूर्ण बर्ताव करने के बाद भी किसान आंदोलन के आवेग को रोक पाने में नाकाम केंद्र सरकार अब किसानों के साथ वार्ता-वार्ता खेल रही है.
हर बार बातचीत खत्म होने के बाद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह
तोमर मीडिया के कैमरों के सामने आते हैं और कहते हैं-वार्ता सकारात्मक माहौल में हुई.
उनकी रोनी सूरत उनके शब्दों की चुगली कर रही होती है. दरअसल इन तीन कृषि क़ानूनों के
मामले में केंद्र सरकार की स्थिति साँप-छछूंदर हो चुकी है. सरकार पीछे हटना नहीं चाहती,आगे किसान आंदोलन बढ़ने नहीं दे रहा है !
05 दिसंबर को जो अंतिम वार्ता हुई उसमें किसान नेताओं
ने सरकार के सामने कागज बढ़ा दिये,जिन पर प्रश्न था- हाँ या ना ! बैठक
से बाहर निकल कर कृषि मंत्री ने रोनी सूरत और सकारत्मकता के घोष के साथ एक बड़ी रोचक
बात कही. उन्होंने वार्ता संख्या गिनवाई कि यह कौन से दौर की वार्ता थी. इसमें से दो
दौर वार्ताओं के आंदोलन के दिल्ली पहुँचने से पहले के हैं. उनमें से वार्ता के एक दौर
में सरकार की तरफ से किसानों को कानून की प्रतियां देते हुए कहा गया कि आप इन क़ानूनों
को ठीक से पढ़ लें. अक्टूबर के महीने में पंजाब
से किसान नेता इसलिए बुलाये गए कि उन्हें कानून की प्रतियाँ देकर,कानूनों को पढ़ने की नसीहत दी जा सके ! गज़ब सरकार है !
बहरहाल 05 दिसंबर को कृषि मंत्री ने कहा कि “समाधान का
रास्ता खोजने में यह उपयुक्त होता कि किसान नेताओं के भी कुछ सुझाव मिल जाते तो हमको
रास्ता निकालना थोड़ा आसान होता है. अभी भी हम उसका इंतजार करेंगे.” अगर किसान नेता
समाधान का रास्ता निकालने का कोई सुझाव नहीं दे रहे तो ये हर बैठक के बाद “अच्छे माहौल”, “सकारात्मक माहौल” की तान, जो कृषि मंत्री छोड़ते हैं,उसमें होता क्या है ? पर क्या सचमुच किसान नेता समाधान
निकालने के लिए सुझाव नहीं दे रहे हैं ? जी नहीं यह कोरी लफ़्फ़ाजी
है,जो सरकार कर रही है. किसान नेता,सुझाव
नहीं दे रहे,वे तो अपनी तरफ से रास्ता बता रहे हैं और वह रास्ता
है- इन तीन क़ानूनों को रद्द करना. चूंकि केंद्र सरकार ऐसा करना नहीं चाहती,इसलिए वह इस बात को सुझाव के रूप में दर्ज करने को भी राजी नहीं है.
केंद्र सरकार की मंशा यदि किसानों के
साथ सकारात्मक दिशा में बढ़ने की होती तो वह अपनी तरफ से भरोसा कायम करने के लिए कुछ
कदम उठा सकती थी. सबसे आसान और प्रारंभिक कदम यह हो सकता था कि आवश्यक सेवा वस्तु अधिनियम में किए गए संशोधन को वह रद्द कर
देती. बाकी दो कानून- कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य(
संवर्द्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक(सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन व सेवा
पर करार विधेयक 2020- तो नए बनाए गए हैं. परंतु आवश्यक सेवा वस्तु अधिनियम तो 1955
से मौजूद था. इसमें संशोधन करके मोदी सरकार ने अनाज, दाल, खाद्य तेल, तिलहन,आलू,प्याज को आवश्यक वस्तुओं के दायरे से बाहर कर दिया. आलू,प्याज की आसमान छूती कीमतें के पीछे की वजह यही है कि केंद्र सरकार ने इन्हें
आवश्यक वस्तुओं के दायरे से बाहर करके, इनके असीमित भंडारण करने, नकली कमी पैदा करने और कालाबाजारी का रास्ता खोल दिया है.
इस संशोधन को तत्काल वापस ले कर मोदी सरकार आम जनता को
भी मंहगाई से फौरी राहत दे सकती थी और किसानों में भी एक विश्वास का भाव पैदा कर सकती
थी कि सरकार उनकी मांगों,चिंताओं और आशंकाओं के प्रति संवेदनशील
है.
जो सरकार बैंक,बीमा,रक्षा,रेलवे सब कुछ बेचने
पर आमादा है,वह खेती की जमीन भी बड़े पूंजीपतियों के हवाले करना
चाहती है, यह खुला रहस्य है. इसलिए ये तीन कानून भी लाये गाये
हैं. लेकिन बेशर्मी की इंतहा देखिये कि सरकार काला बाजारी करने को वैध बनाती है,काला बाजारी करने वालों को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए कानून लाती है
और फिर ऐसे क़ानूनों को किसानों के लिए हितकारी बताती है !
कृषि मंत्री जब बैठक में यह तर्क देते हैं कि कानून बनाने में बहुत सारे लोग शामिल रहे हैं और उन्हें कानून रद्द करने के लिए पूछना पड़ेगा तो उनका आशय किसान आंदोलन के बीच नगर निगम चुनाव के स्टार प्रचारक और साउंड एंड लाइट शो को तवज्जो देने वाले अपने राजनीतिक आकाओं से ही नहीं है ! उनका आशय उन तमाम लोगों से है,जिनके हक में ये कानून लाये गए हैं,जिन्हें कानूनी रूप से देश का नया जमींदार बनाने के लिए सरकार ने किसानों के साथ आक्रांताओं के जैसे व्यवहार का रास्ता चुना !
यह अनायास ही नहीं है कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर अक्टूबर के
प्रथम सप्ताह में इन क़ानूनों का असर समझाने के लिए एक ऐसे कार्यक्रम में जाते हैं,जिसका प्रायोजक अदानी समूह होता है. जाहिर सी बात है कि इन कानूनों के हितकारी
प्रभाव अदानी समूह जैसों के हक में हैं,इसलिए वे कार्यक्रम प्रायोजित
करवा के ऐसे हिस्से को उन कानूनों का प्रभाव समझाने की कोशिश कर रहे हैं,जिनका न खेती से कोई लेना-देना है, न किसानों से !
किसान चूंकि नए जमींदार बनाने की सरकार की मंशा और उनके
लिए लाये गए इन कानूनों की हकीकत समझ रहा है, इसलिए वार्ता के बीच
भी आंदोलन को निरंतर धार दे रहा है.
-इन्द्रेश मैखुरी
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