कल के अखबारों में बड़ी- बड़ी खबर थी कि उस शिक्षक को कारण बताओ नोटिस दे दिया गया है, जिसने शिक्षा मंत्री के सामने अपनी पीड़ा व्यक्त की. खबर के अनुसार उक्त शिक्षक ने शिक्षा मंत्री के साथ अभद्रता की थी !
आज के अखबार में छोटी सी खबर है कि उक्त शिक्षक ने कारण बताओ नोटिस का जवाब दे दिया है.
वीडियो वायरल होने के साथ ही मंत्री जी के चहेतों ने उक्त शिक्षक के खिलाफ सोशल मीडिया पर मोर्चा खोल दिया.
ऐसी सब पोस्टों में अनिवार्य तौर पर यह लाइन मौजूद है : " चमोली में जिस शिक्षक ने मंच से अपनी बात रखी, वह ये भूल गया कि वो शिक्षक भी है." यह लाइन बिना कॉमा- फुल स्टॉप के बदलाव के, इस प्रकरण पर मंत्री जी के पक्ष में की गई सभी पोस्टों में समान रूप से दर्ज है !
इसी तरह ऐसी सभी पोस्टों में उक्त शिक्षक को गुंडा करार देना भी पोस्ट कर्ताओं ने अपना परम कर्तव्य समझा और आचरण नियमावली का हवाला भी सबने दिया. यह भी लगभग सभी ने लिखा कि मंत्री जी बेहद भोले- भाले, सीधे- साधे हैं !
उक्त सारी पोस्टों को देखें तो ऐसा लगता है कि पोस्ट एक ही जगह तैयार हुई और फिर सबको प्रसाद की तरह बांट दी गयी !
बहरहाल, एक पोस्ट के सब जगह चेपक मंत्री जी के समर्थकों को क्यों नहीं लगा कि उक्त शिक्षक तो शिक्षक जैसे ही नहीं हैं? क्या उक्त शिक्षक ने मंत्री जी को संबोधित करते हुए किसी तरह के अपशब्दों का प्रयोग किया ? ऐसा तो नहीं हुआ.
क्या शिक्षक को बिल्कुल दब्बू ,जी हुजूरी करने और हां में हां मिलाने वाला होना चाहिए ? शिक्षक डरा-सहमा, दब्बू किस्म का होगा तो क्या वह छात्रों को अपने हक अधिकार के लिए आवाज़ उठाना सिखा पाएगा या सिर झुकाए,सत्ता की हां में हां मिलाने वालों की खेप तैयार करेगा ?
( सनद रहे कि उक्त शिक्षक कैसे छात्र तैयार कर रहे हैं, इसका यहां कोई दावा नहीं किया जा रहा है.)
कुछ को अचानक सेवा आचरण नियमावाली याद आई और इसमें लोग यहां तक बढ़ गए कि शिक्षक तो सीधा मंत्री से मिल ही नहीं सकता ! अरे सेवा आचरण नियमावाली का प्याज नया- नया खाने वालो, जरा बताओ तो शिक्षक सीधा मंत्री से कहां नहीं मिल सकता ? मंत्री से शिक्षक उनके मंत्रालय या कार्यालय में सीधा जा कर नहीं मिल सकता पर मंत्री यदि शिक्षक के स्कूल में हों तो शिक्षक को मंत्री को देख कर मुंह छुपा लेना चाहिए, ऐसी कोई सेवा आचरण नियमावाली नहीं कहती है.
प्रसंगवश यह याद दिलाना समीचीन होगा कि 2023 में जब बेरोजगारों का आंदोलन चल रहा था तो उक्त आंदोलन की धार कमजोर करने के लिए एक फर्जी बेरोजगारों का प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री से मिलवाया गया, उसमें सरकारी कर्मचारी भी बेरोजगार की हैसियत से मुख्यमंत्री से मिले ! तो इस प्रदेश में सेवा आचरण नियमावाली की धज्जियां उड़ाने का काम तो सत्ता शीर्ष से हुआ है. उसी सत्ता के समर्थकों का एक शिक्षक की जायज मांगों से ध्यान हटाने के लिए सेवा आचरण नियमावली का हव्वा खड़ा करने की कोशिश करना हास्यास्पद है.
अब इस तर्क पर आते हैं कि मंत्री जी बहुत भोले- भाले हैं और उन्होंने चुपचाप शिक्षक की बात सुनी. जब मंत्री जी के सामने आवाज़ उठाने वाले शिक्षक को तुरंत कारण बताओ नोटिस जारी करके तत्काल ही जवाब देने को भी कह दिया गया तो यह तर्क तो वैसे ही हवा हो जाता है. कार्रवाई की प्रक्रिया तो शिक्षक के विरुद्ध शुरू हो ही चुकी है.
वैसे सार्वजनिक रूप से कार्रवाई और सत्ता की धौंस दिखाने पर कैसी छिछालेदर होती है यह तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और शिक्षिका उत्तरा पंत के प्रकरण में पूरे प्रदेश ने देखा ही. इसलिए सत्ता की हनक के प्रत्यक्ष प्रदर्शन से बचा गया तो उस प्रकरण का सबक भी दिमाग में रहा होगा.
लेकिन इस सारे मसले में जो असल सवाल है, वो है उत्तराखंड में सरकारी शिक्षा की हालत और शिक्षकों के अभाव का सवाल. यही वो मसला है, जिसकी वजह से यह सारा मामला हुआ.
आज दैनिक जागरण में एक रिपोर्ट छपी है. उस रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में :
प्रवक्ता के कुल 6259 पदों में से 3103 पद रिक्त हैं.
प्रधानाध्यापकों के कुल 910 पदों में से 830 पद रिक्त हैं.
प्रधानाचार्यों के कुल 1385 पदों में से 1180 पद रिक्त हैं.
ये आंकड़े राज्य की शिक्षा व्यवस्था की खस्ता हालत का बयान करने के लिए पर्याप्त हैं. अदालत में मुकदमे हैं, यह कह कर सरकार और मंत्री जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते. शिक्षा मंत्री के सामने ही राजकीय शिक्षक संघ के चमोली के जिला मंत्री ने बहुत वाजिब बात कही कि कोर्ट में लंबित मामलों की चर्चा करने से पहले यह चर्चा करना जरूरी है कि कोर्ट जाने की नौबत आई ही क्यों ? जब विभाग में सुनवाई नहीं हुई इसीलिए शिक्षकों को कोर्ट जाना पड़ा. सुनवाई नहीं होगी तो शिक्षकों का आक्रोश भी अनायास फूटेगा ही !
राज्य सरकार और शिक्षा मंत्री को पहल करके तमाम मामले सुलझा कर विद्यालयी शिक्षा में पदोन्नति और नियुक्ति का रास्ता साफ करना चाहिए. किसी एक शिक्षक के विरुद्ध सोशल मीडिया अभियान चला देने से उत्तराखंड सरकार और शिक्षा मंत्री अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.
-इन्द्रेश मैखुरी
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