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अंकिता हत्याकांड से उपजते सवाल

 








किशोर वय से युवा अवस्था में कदम रखती एक लड़की-अंकिता भंडारी, ऋषिकेश के एक रिज़ॉर्ट में नौकरी करने जाती है और महीना बीतते-न-बीतते मौत की नींद सुला दी जाती है. यह हृदयविदारक घटना है, जघन्यतम अपराध है.  
















इस पूरे हत्याकांड से कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं.


पाँच दिन तक मामला राजस्व पुलिस(पटवारी) के पास रहा और उसके बाद रेगुलर पुलिस को हस्तांतरित हुआ. उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में पुलिस का काम, अंग्रेज़ों के जमाने से अब तक पटवारियों के हाथ में है. यह व्यवस्था बेहद ढीले-ढाले अंदाज में काम करती है, कुछ सरकार ने इसे ढीला किया हुआ है और कुछ अभिवृद्धि उस ढीलेपन में इन्होंने स्वयं कर ली है. यह सवाल वाजिब है कि जब मामले के गंभीर और बड़ा होते ही रेगुलर पुलिस की पुकार अनिवार्य रूप से लगनी है तो क्यूँ न पहले ही यह सारा इलाका रेगुलर पुलिस को सौंप दिया जाये. लेकिन इस प्रकरण में क्या यह सबसे सही सवाल है ?  इस मामले में इस सवाल के सबसे सही सवाल होने में थोड़ा संशय है. ऐसा क्यूँ ? ऐसा इसलिए क्यूंकि रेगुलर पुलिस हो या राजस्व पुलिस, यदि गुहार लगाने वाला कमजोर है और जिसके विरुद्ध गुहार लगाई जा रही है, वह शक्तिशाली है तो पुलिस का दर्जा कोई सा हो, कांटा शक्तिशाली के पक्ष में झुका हुआ मिलेगा. एक गरीब व्यक्ति की बेटी गायब हो गयी तो पौड़ी जिले में प्रशासन, राजस्व पुलिस-रेगुलर पुलिस खेल रहे थे. चमोली जिले के कुलसारी के पास के गाँव में स्टोन क्रशर वाले के पक्ष में उतरना था तो बिना फ़ाइल ट्रान्सफर की औपचारिकता के खेल के ही, रेगुलर पुलिस, पटवारी क्षेत्र में जीप भर कर घुसी, नोटिस दे आई, पुलिस महानिदेशक और जिले की पुलिस अधीक्षक से बात करने के बावजूद, अगले दिन थराली थाने वाले फिर पटवारी क्षेत्र में से दो युवाओं को उठा लाये. और सनद रहे, यह कोई बरसों पुरानी बात नहीं है, इसी सितंबर महीने की बात है. तो यह सुविधा और सुभीते का खेल है, जहां जैसी सहूलियत हुई,वहाँ वैसा तर्क चिपका दिया.


 पुलकित आर्य नाम का व्यक्ति, जो रिज़ॉर्ट का मालिक है, उसको सत्ता की हनक इस कदर थी कि उसे पुलिस के रेगुलर और राजस्व होने से उसे कोई फर्क नहीं  पड़ना था. 2020 में लॉकडाउन के दौरान जब चप्पे-चप्पे पर रेगुलर पुलिस ही थी तो यह पुलकित आर्य बिना किसी वैध कागजात के, अपने पिता विनोद आर्य की सरकारी गाड़ी में हरिद्वार से जोशीमठ पहुँच गया. 2016 में ऋषिकुल आयुर्वेदिक कॉलेज में बीएएमएस की परीक्षा में अपनी जगह, दूसरा अभ्यर्थी बैठाने के लिए उसे निष्काशित किया गया पर पिता के राजनीतिक रसूख के चलते अगले साल फिर बहाल कर दिया गया. और किसी का मामला होता तो उसकी गिरफ्तारी होती और गिरफ्तार करने वाली रेगुलर पुलिस होती. लेकिन मामला पुलकित का था तो  ऐसा नहीं हुआ. कारण राजनीतिक रसूख.
















तो क्या यहाँ यह कहा जा रहा है कि पटवारी की कोई गलती नहीं है ? जी नहीं, पटवारी तो निश्चित ही अभियुक्त के साथ मिला हुआ था. इसलिए अभियुक्त ने यह जानते-बूझते ही लड़की की हत्या करने के बाद खुद ही पटवारी को गुमशुदगी की सूचना दे दी. उसे भरोसा था कि पटवारी उसका अपना आदमी है और उसका यह पैंतरा, कानूनी खेल में उसके काम आएगा.


 असल मसला पटवारी और पुलिस नहीं बल्कि पुलकित को हासिल राजनीतिक संरक्षण है, जिसके बलबूते वह अतीत में बचता रहा और इसलिए हत्या करने पर भी उसे उस राजनीतिक संरक्षण का पूरा भरोसा रहा होगा. पटवारी व्यवस्था सुधारिए परंतु जिस बीमारी का इलाज करना चाहते हैं, उसकी ठीक से शिनाख्त तो करिए.


इस मामले में यह बात सामने आई है कि अंकिता भंडारी को पुलकित आर्य देह व्यापार में धकेलना चाहता था. अंकिता ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, इसलिए उसकी हत्या कर दी गयी. अंकिता ने गलत काम न करने के अपने साहस की कीमत जान दे कर चुकाई.पर क्या अंकिता अकेली थी, जिसे इस तरह से देह व्यापार में धकेलने की कोशिश पुलकित कर रहा था ? क्या ऐसी भी लड़कियां थी, जो अंकिता की तरह ना बोलने का साहस नहीं कर सकी और इस गलाज़त के दलदल में धकेल दी गयी ? अगर हाँ वे लड़कियां अभी कहाँ हैं ? उन लड़कियों को इस दलदल से निकालने का जिम्मा किसका है ? प्रश्न यह भी है कि वे हवस के भेड़िये कौन हैं, जो इन शांत-वादियों में अपनी वहशत मिटाने आ रहे हैं ? यह भी तो जांच का विषय होना चाहिए कि वे सफेदपोश कौन हैं, जिनकी हवस को पूरा करने के लिए पुलकित आर्य हत्या करने में भी नहीं हिचकिचाया.


यह भी प्रश्न है कि सघन वन क्षेत्र में रिज़ॉर्ट- होटल और ऐसे तमाम अय्याशी के अड्डे कैसे कायम हो रहे हैं ? उन्हें सारी अनुमतियाँ कैसे, बिना बाधा के प्राप्त हो जाती हैं ? इनमें से कितने हैं, जिनको वनंतरा की तरह अनुमति किसी और बात की है और वो चला कुछ और रहे हैं ?


पाँच दिन तक राजस्व पुलिस-रेगुलर पुलिस खेलने के बाद, उत्तराखंड सरकार ने अंकिता की हत्या के पश्चात, अचानक एक्शन में दिखने के लिए बुलडोज़र चलाने का स्टंट रचा. बुलडोज़र न्याय के पैरोकार न केवल सत्ताधारी पार्टी में हैं बल्कि ऐसा प्रतीत होता कि विपक्षी पार्टियां भी बुलडोज़र न्याय के स्टंट के प्रपंच में फंस गयी हैं. पर प्रश्न यह है कि बुलडोज़र न्याय, पीड़ितों की मदद करता है या अपराधियों की ? इस प्रकरण में ही देखें तो जिस रिज़ॉर्ट में सारे षड्यंत्र रचे जाते रहे, जहां एक युवा लड़की को देह व्यापार में धकेलने की कोशिश हुई और जहां से वह हत्या करने ले जायी गयी, वह तो वारदात और सबूतों के लिहाज से महत्वपूर्ण जगह है. उसे तो हत्यारोपियों को सजा दिलवाने के लिए बचा कर रखा जाना चाहिए. लेकिन बुलडोज़र स्टंट के बाद, वहां आग लगाना तो सारे सबूतों को नष्ट करने के लिए ही उठाया गया कदम प्रतीत होता है.  जिसे बुलडोज़र ने ध्वस्त कर दिया था, वह ऐसा कैसे बचा हुआ था कि उसमें आग लगाई जा सके ? यह तो पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी सवाल है कि जिस जगह पर हत्या के षड्यंत्र की कहानी बुनी गयी, उस जगह को सील करने के बजाय ऐसे खुला क्यूँ छोड़ा गया था कि कोई भी वहाँ जा कर आग लगा सके ? 

 

अपने गांव से बहुत दूर,अंकिता जिस रिज़ॉर्ट में नौकरी करने पहुंची,वह राज्य की सत्ता में बैठी हुई, उस पार्टी के नेता के बेटे का है, जिस पार्टी का नारा है- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ! लेकिन वनंतरा रिज़ॉर्ट के मालिक पुलकित आर्य ने पढ़ी-लिखी इस बेटी की हत्या कर दी. पुलकित आर्य स्वयं भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तकनीकी शिक्षा प्रकोष्ठ का गढ़वाल संयोजक रहा है. उसके पिता और भाई पार्टी में होने के चलते, जिन पदों पर रहे हैं, वे राज्यमंत्री स्तर के हैं. वह अपनी बिगड़ैल हरकतों के लिए कुख्यात रहा है. बार-बार वह विवादों में फँसता रहा, लेकिन ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि इस घटना से पहले कभी पार्टी ने इस परिवार को कभी रोकने-टोकने की कोशिश की हो. परिवार, पार्टी, प्रशासन और पुलिस, जब उसकी हर बत्तमीजी को अपने दुलारे नादान बच्चे की शरारतें समझ कर, इस हद तक नज़रअंदाज़ करते रहे कि वह हत्या करने में भी नहीं हिचकिचाया तो उसके पीछे इसी कवचीय संरक्षण का भरोसा तो काम कर रहा होगा. हत्यारा भले ही पुलकित हो पर हत्या के मददगार तो ये सब भी हैं !


-इन्द्रेश मैखुरी   

 

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