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सरकार को जो सुहाता है, क्या शोध पत्र भी वैसा लिखना होगा ?

 








उत्तराखंड सरकार की ओर से उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सचिव डॉ.पियूष रौतेला समेत पाँच लोगों को उनके एक शोध पत्र के लिए कारण बताओं नोटिस 28 दिसंबर 2021 को जारी किया गया है.









उत्तराखंड सरकार के आपदा और पुनर्वास विभाग के अपर मुख्य कार्यकारी अधिकारी (प्रशासन) जितेंद्र कुमार सोनकर की ओर से उक्त नोटिस डॉ.पियूष रौतेला के साथ ही उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के प्रभारी अधिशासी अधिकारी राहुल जुगराण, उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ.गिरीश चंद्र जोशी, उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के भू-वैज्ञानिक सुशील खंडूड़ी और ग्राम्य विकास विभाग में यूएनडीपी की जीआईएस कंसल्टेंट सुरभि कुंडलिया को जारी किया गया है.


उक्त नोटिस कहता है कि 21 दिसंबर 2021 को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख छपा है. नोटिस के अनुसार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा लेख, जिन लोगों को नोटिस दिया गया है, उनके द्वारा अक्टूबर 2021 को जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड अर्थ साइन्सेस में प्रकाशित लेख Sequential Damming Induced Winter Season Flash Flood in Uttarakhand Province of India से संदर्भित है.








नोटिसकर्ता ने उक्त लेख के पांचों लेखकों से पूछा है कि लेख में प्रकट किए गए विचार उनके निजी हैं या सरकारी ? यदि लेख में प्रकट किए गए विचार निजी हैं तो नोटिसकर्ता जानना चाहता है कि लेख में लेखकों के विभाग का उल्लेख क्यूँ है और यदि सरकारी विचार हैं तो लेखकों ने किस सक्षम सरकारी प्राधिकारी से उक्त लेख छपवाने की अनुमति ली थी !


ये नोटिसकर्ता महाशय जो भी हैं, कोई इन्हें इतना ज्ञान जरूर दिलाये और इनके जरिये यह ज्ञान उत्तराखंड सरकार तक भी पहुंचे कि जहां उक्त लेख छपा है, वह एक वैज्ञानिक शोध जर्नल है. जिसे नोटिसकर्ता महाशय लेख कह रहे हैं, वह एक शोध पत्र है, जिसे अंग्रेजी में रिसर्च पेपर कहते हैं. इस बात से ऐसा भी प्रतीत होता है कि नोटिसकर्ता महाशय और उत्तराखंड सरकार को लेख और रिसर्च पेपर का अंतर भी समझाना होगा. यह भी समझाना होगा कि लिखने वाले सिर्फ कोई कलम घिस्सू बाबू नहीं हैं, बल्कि विज्ञान से जुड़े हुए लोग हैं, वैज्ञानिक हैं और ऐसे शोध पत्र वे लिखें, तभी उनके होने की सार्थकता है. सिर्फ सचिवालय की कुर्सियों पर लद कर नोटिंग बढ़ाने के लिए वे ना तो नियुक्त हैं, न इससे उनके होने की सार्थकता है.


उक्त कारण बताओ नोटिस को पढ़ कर प्रतीत होता है कि उत्तराखंड सरकार को सर्वाधिक पीड़ा इस बात से हुई कि उक्त लेखकों ने लिख दिया कि फरवरी 2021 में जोशीमठ क्षेत्र में आई आपदा में अधिक जनहानि, पूर्व चेतावनी तंत्र (early warning system) के ना होने की वजह से हुई.


यह निर्विवाद सत्य है कि वहां पर पूर्व चेतावनी का कोई तंत्र नहीं था. एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनी, जो इतनी बड़ी जलविद्युत परियोजना, तपोवन में बना रही थी, उसकी साइट पर एक अदद साइरन तक नहीं था. एनटीपीसी ने सुरक्षा के नाम पर केवल नारे लिखे बोर्ड ही सारी साइट पर लगाए थे. यह बात पहले दिन से स्पष्ट थी.


कहने का आशय यह है कि उक्त लेखकों ने यदि ऐसा लिखा तो कोई नयी बात नहीं लिखी, बल्कि यह बात उनके लिखने से पहले सैकड़ों दफ़े लिखी जा चुकी है.


यह भी अद्भुत बात है उत्तराखंड सरकार को पूर्व चेतावनी तंत्र के ना होने की बात लिखने मात्र से इतनी पीड़ा हुई कि उसने लिखने वालों को कारण बताओ नोटिस जारी कर डाला ! लेकिन पूर्व चेतावनी तंत्र ना होने से 200 से अधिक लोगों की जान चली गयी, इससे उत्तराखंड सरकार को जरा भी पीड़ा नहीं हुई !


उत्तराखंड सरकार थोड़ा भी संवेदनशील होती तो उक्त शोध पत्र में भविष्य में आपदाओं से निपटने के लिए जो सुझाव दिये गए हैं, उन पर संजीदगी से गौर करती.


जैसे उक्त शोध पत्र कहता है कि किसी भी परियोजना के निर्माण से पहले खतरे का आकलन (Risk assessment), उस क्षेत्र में पूर्व में हुई आपदाओं को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए और यह हिमालयी क्षेत्र में परियोजना निर्माण करने के लिए कानूनन बाध्यकारी होना चाहिए. ऐसे खतरों के आकलन वाली रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. शोध पत्र कहता है कि इससे होगा यह कि बीमा कंपनियों, असुरक्षित योजनाओं के बीमे पर धन नहीं लगाएँगी और तब आपदा संभावित इस क्षेत्र में आपदा के खतरे से सुरक्षित परियोजनाएं ही बनेंगी.


शोध पत्र कहता है कि जलविद्युत परियोजनाओं के लिए यह बाध्यकारी होना चाहिए कि वे पूर्व चेतावनी तंत्र के लिए आंकड़े और संसाधन मुहैया करवाएँ. शोध पत्र यह भी कहता है कि जलविद्युत परियोजनाओं और अन्य ढांचागत परियोजनाओं के हिमालयी क्षेत्र पर दीर्घकालीन प्रभाव नकारात्मक ही होंगे.


पूरा शोध पत्र पढ़ कर तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि उत्तराखंड सरकार सिर्फ पूर्व चेतावनी तंत्र की बात से ही आहत नहीं हुई बल्कि शोध पत्र के निष्कर्ष एवं अनुशंसाओं से भी उसने बेचैनी महसूस की होगी.


उत्तराखंड सरकार को अखबारों के पूरे-पूरे पन्ने के रंगीन विज्ञापनों में खुद की तारीफ की लत लग चुकी है. पर सरकार बहादुर, सब कुछ तो विज्ञापनी मायाजाल नहीं हो सकता ना ! विज्ञान भी एक चीज है, जिसमें शोध होता है, शोध के निष्कर्ष से आपको तकलीफ भले हो पर उससे विज्ञापनी जी-हुजूरी की अपेक्षा मत रखिए !


-इन्द्रेश मैखुरी

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