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खननदायिनी, खनन तारिणी !!

 








यूं हमारे यहां नदियों को जीवन दायिनी कहने का चलन है. किस्सा तो यह भी है कि भागीरथ अपने पुरखों को तारने के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाये थे.


आज के इस वर्तमान दौर में तो नदियां जीवन दायिनी से बढ़ कर खननदायिनी हो चुकी हैं या ऐसा भी कहा जा सकता है कि खनन पर निर्भरों के लिए सर्वाधिक जीवनदायिनी हैं ! और नदियां खननदायिनी हो सकें, इसीलिए वे जेसीबी धारिणी हैं, पोकलेन निहारिणी हैं.


यही वर्तमान राजनीति के नदी जाप के पीछे का असली मंतव्य है. धर्मध्वजा के नाम पर मारने-काटने वाले किसी नेता को नदी का नाम लेकर जीवन दायिनी कहते सुने तो समझ लें कि नेताजी असल में खननदायिनी ही कह रहे हैं, प्रसाद के रूप में खनन के मैटिरियल का ढेर ही देख रहे हैं.


 साधो जब पाँच साल सत्ता में बैठा मुखिया, अपने बड़े माईबाप के हाथों का खिलौना हो, माईबाप नट हों और प्रांत मुखिया कठपुतली तो फिर आखिर आते-आते तो सत्ता सिर्फ सत्ता नहीं रह जाती वह तो ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच कहलाती है. ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच का जिम्मा माईबाप नट ने जिस कठपुतली के हाथ सौंपा है, उसे नट माईबाप के हाथों बंधी डोर के इशारों पर नाचना है. ट्वेंटी-ट्वेंटी के कप्तान की इच्छा टेस्ट मैच की कप्तानी की होगी ही भले ही डोर कहीं रहे. ट्वेंटी-ट्वेंटी से टेस्ट मैच की कप्तानी तक पहुँचने के लिए जुबानी काम से ज्यादा करारे दाम की जरूरत है !


दाम कहां से आएगा, तो इसके लिए फिर खनन दायिनी से ही अपेक्षा है कि वैतरणी उसी ने तारनी है. सो खनन के लक्ष्य पाँच से पंद्रह कर दिये गए हैं यानि तीन गुना बढ़ा दिये गए हैं. जेसीबी और पोकलेन के काम का बोझ बहुत बढ़ गया है मित्रो ! जेसीबी धारिणी, पोकलेन निहारिणी ही उनका बोझ अब हल्का कर सकती हैं.



फोटो : मुजीब नैथानी जी के फेसबुक वाल से साभार







लेकिन खनन दायिनी के सहारे वैतरणी तरने और ट्वेंटी-ट्वेंटी से टेस्ट के कप्तान बनने के इस सपने के चक्कर में युगों-युगों से चले आ रहे “कद्दू कटेगा, सब में बंटेगा” जैसे शाश्वत सिद्धान्त को किनारे कर दिया गया.


भई उठा-पटक, इधर-उधर, अदल-बदल करने वालों के भी तो कुछ उसूल हैं. वे यहां-वहां-जहां-तहां- मत पूछो कहां-कहां जायें तो उसके मूल में युग-युगों, जन्म-जन्मांतर से चला आ रहा- “कद्दू कटेगा, सब में बंटेगा” का शाश्वत सिद्धान्त है. जहां कद्दू नहीं, वहां क्या कटेगा और क्या बंटेगा ? तो ऐसी जगह वे फौरन त्याग देते हैं.


पर कद्दू हो कर भी नहीं बंटेगा, ऐसा उनका सिद्धांतवादी मन कतई स्वीकार नहीं कर सकता ! ऐसा करना तो उनको “भिखारी बना”ने जैसा है ! इसका तत्काल “उपचार”” होना चाहिए. ऐसे उपचार का भी कोई अस्पताल होता तो कितना अच्छा होता ! पर “उपचार” न होगा तो वे नड़क जाएंगे, फरक जाएंगे !


साधो, यह अत्यंत सिद्धांतवादी झगड़ा था. बस यह ज्ञात न हो सका कि ट्वेंटी-ट्वेंटी मुखिया ने कद्दू के भविष्य में काट कर बांटने का भरोसा दिलाया या कि मुखिया नट से इनका ही कद्दू बना देने की घुड़की !


आपको ये कथा और इसके पात्र कुछ जाने-पहचाने लगते हैं ? बूझो तो जानें !


-इन्द्रेश मैखुरी

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