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मंत्री की भाषा पर सवाल क्यूं ?

 







स्वास्थ्य मंत्री के पद पर डॉ.हर्षवर्द्धन को हटा कर पदारूढ़ किए गए मनसुख मांडविया अपने कुछ पुराने ट्वीट्स और उनमें अंग्रेजी की गलतियों को लेकर चर्चा में हैं. ट्विटर पर उनके ये पुराने ट्वीट्स ट्रेंड कर रहे हैं. जहां काफी लोग नए स्वास्थ्य मंत्री का मज़ाक बना रहे हैं, वहीं कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि भाषा योग्यता का पैमाना नहीं हो सकती. कुछ लोग तो मंत्री की भाषा का मज़ाक उड़ाने वालों की लानत-मलामत करते हुए कह रहे हैं कि अंग्रेजी की शुद्धता का यह आग्रह औपनिवेशिक मानसिकता है.







भाषा व्यक्ति के परिवेश का मामला है. जिसे मातृभाषा कहा जाता है, वह मातृभाषा इसलिए है क्यूंकि व्यक्ति जहां जन्म लेता है, उस जगह पर वह भाषा बोली जाती है और बड़ा होता बच्चा, किसी औपचारिक प्रशिक्षण और व्याकरण के नियमों के ज्ञान के बिना भी, थोड़े समय में उस भाषा में बोलने लगता है. इसलिए व्यक्ति की भाषाई दक्षता,उसके परिवेश पर निर्भर करती है. वह जिस भाषा के बोलने वालों के बीच रहता है, उसी भाषा को वह सहजता से बोलने-समझने  लगता है.


यह मुमकिन है कि कोई व्यक्ति किसी भाषा में दक्ष न हो.लेकिन व्यक्ति अगर किसी भाषा का प्रयोग कर रहा है तो उससे यह अपेक्षा क्यूं नहीं की जाएगा कि वह उस भाषा को ठीक तरीके से लिखे. लोग तो नहीं जानते थे कि मंत्री जी की अंग्रेजी कैसी है, परंतु वे स्वयं तो जानते होंगे !


मनसुख मांडविया जिस पार्टी से आते हैं, उस पार्टी का नारा है- हिन्दी,हिन्दू हिंदुस्तान. उस नारे वाली पार्टी का नेता जो केंद्र में मंत्री बनाया जा रहा है, वह जब स्वतंत्रता दिवस की बधाई देने के लिए ट्विटर पर जाता है तो उस भाषा में लिखता है, जिसमें उसका हाथ तंग है और गलत लिखता है. तो सवाल मंत्री की भाषा पर प्रश्न उठाने वालों से होना चाहिए या मंत्री से होना चाहिए कि महाराज यदि आपको कोई भाषा नहीं आती तो जरूरी तो नहीं है कि उस भाषा में ट्वीट करो ! हिन्दी में भी लिख ही सकते थे और गुजराती में भी ! जिसे जरूरत होगी यह जानने की कि मंत्री जी ने स्वतंत्रता दिवस पर क्या लिखा, वह हिन्दी, गुजराती, किसी भी भाषा में लिखा हुआ खोज लेगा.


दरअसल अंग्रेजी को लेकर इस देश में अजब कुंठा और श्रेष्ठताबोध है. जो अंग्रेजी बोल सकता है, उसे लोग भारी तुर्रमखां समझते हैं. यह औपनिवेशिक गुलामी से उपजी हुई ग्रंथि है. सोशल मीडिया में अंग्रेजी न जानने वालों को भी जब लगता है कि उन्हें कोई  उपलबद्धि हासिल हुई है या कोई ऊंचे दर्जे की बात कहनी है तो वे अंग्रेजी में लिखते हैं. जैसे एक सज्जन कहीं उपाध्यक्ष हुए तो उन्होंने स्वयं के voice president होना का ऐलान किया. Vice और voice का भेद उनके लिए दूर की कौड़ी था. एक सज्जन ने अपनी पत्नी को बधाई देने के लिए अंग्रेजी को चुना और लिखा – happy birthday my half better ! अब better half को half better लिख देंगे तो मामला ठीक उल्टा हो जाएगा, अर्थ का अनर्थ हो जाएगा. लेकिन अंग्रेजी में हाथ तंग होने के बावजूद लोग समझते हैं कि बड़ी बात तो सिर्फ अंग्रेजी में ही कही जा सकती है.

 अंग्रेजी के जरिये स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की यह ग्रंथि है, जिसने मनसुख मांडविया से हास्यस्पद अंग्रेजी में वे ट्वीट करवाए. वरना बजाय अंग्रेजी में यह लिखने के कि Mahatma Gandhi is our nation of father,  सामान्य हिन्दी में भी लिख सकते थे कि महात्मा गांधी हमारे राष्ट्रपिता हैं या गुजराती में ही लिख देते.







लेकिन try को tray वाली अंग्रेजी, मंत्री जी ने अपने समर्थकों पर अंग्रेजी जानने का रौब गालिब करने के लिए लिखी होगी. अचानक केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री की कुर्सी पर वे बैठा दिये गए तो उनके पुराने ट्वीट भी चल पड़े.


 अंग्रेजी को इस देश में लोग सिर्फ भाषा नहीं श्रेष्ठता सिद्ध करने की चीज समझते हैं और यह भी समझते हैं कि अंग्रेजी न जानना, उनको हीन बना देगा. ऐसे में कोई मंत्री जब ऐसी गलत-सलत अंग्रेजी का प्रयोग करता है तो अंग्रेजीदां नौकरशाहों के द्वारा उसे बात-बात पर मूर्ख बनाए जाने की संभावना सर्वाधिक है. अंग्रेजी उसे ठीक से आती नहीं और हीनता की ग्रंथि का मारा, वह, नौकरशाह को कहेगा नहीं कि बात को हिन्दी में समझाओ !


इसलिए भाषा को श्रेष्ठता और हीनता का पैमाना समझने की मानसिकता से तो स्वयं पहले उन्हें मुक्त होने की जरूरत है, जो भाषा न जानते हुए भी उसका गलत-सलत प्रयोग सिर्फ स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए कर रहे हैं.


चलते-चलते यह भी कि सिर्फ गलत अंग्रेजी वाले ही ट्रोल नहीं हो रहे हैं, गलत हिन्दी वाले भी ट्रोल किए जाते रहे हैं और किए जा रहे हैं.  तब की सांसद और वर्तमान में केंद्र सरकार में मंत्री बनाई गयी मीनाक्षी लेखी की 2017 की वह तस्वीर तो लोगों ने देखी होगी, जिसमें वे एक सफ़ेद बोर्ड पर लाल मार्कर से – स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत-लिखने की कोशिश कर रही हैं और इस क्रम में- सवच्छ भारत, सवस्थ भारत- लिख रही हैं !







 वे तब भी ट्रोल हुई थी और वह तस्वीर उनके मंत्री बनने के बाद फिर घूम रही है.


यह बात तो सही है कि भाषा की विशेज्ञता, योग्यता का एकमात्र पैमाना नहीं हो सकती. लेकिन भाषा की आवश्यकता ही नहीं है, उसे जानने- न जानने से कोई अंतर नहीं पड़ता है,यह तर्क भी हज़म होने वाला नहीं है.


-इन्द्रेश मैखुरी

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