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चमोली जिले में ये क्या हो रहा है ?

 







बीते दिनों एक वीडियो देखा. यह चमोली जिले की जिलाधिकारी स्वाति एस. भदौरिया का वीडियो है, जिसमें वे होमगार्ड को निलंबित करने के मामले में सफाई दे रही हैं. जिलाधिकारी का कहना है कि होमगार्ड ने जिसे पार्क में जाने से रोका, वह उनका बच्चा नहीं था, घटना भी लॉकडाउन की नहीं बल्कि अप्रैल के महीने की है और लोगों की शिकायत के बाद उन्होंने होमगार्ड के निलंबन की कार्यवाही की.





इस वीडियो के जरिये जिलाधिकारी स्वाति एस. भदौरिया, उस वाइरल खबर का जवाब दे रही हैं, जिसमें दावा किया गया था कि होमगार्ड ने जिलाधिकारी के बेटे को लॉकडाउन के दौरान पार्क में नहीं घुसने दिया तो डीएम ने होमगार्ड को तीन साल से निलंबित कर दिया. सिर्फ शिकायत के आधार पर किसी को बिना जांच के ही हटा देना प्रक्रियात्मक रूप से तो ठीक नहीं कहा जा सकता. लेकिन फिर भी हो सकता है, इस मामले में  जिलाधिकारी जो कह रही हैं, वही सही बात हो. लेकिन यह इकलौती बात नहीं है,जो विवाद का विषय बनी है. पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से चमोली जिला प्रशासन के आधिकारिक फेसबुक पेज को सवाल उठाने वाले लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है, क्या उसे सही ठहराया जा सकता है ?


चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर के हल्दापानी क्षेत्र में भूस्खलन के आसन्न  खतरे से लोग जूझ रहे हैं. इसी सिलिसिले में विगत दिनों एक प्रतिनिधिमंडल जिलाधिकारी से मिलने गया. इस मुलाक़ात का एक वीडियो सोशल मीडिया में बड़ी तेजी से वाइरल हुआ. उस वीडियो में जिलाधिकारी स्वाति एस. भदौरिया, एक महिला को चिल्लाते हुए कह रही हैं- “एक सेकंड मैडम बोल लिया ना काफी, बोलती रहेंगी क्या.” जिन पर भू स्खलन का खतरा मंडरा रहा हो, वे अपनी पीड़ा बयान करने जिलाधिकारी के पास आये हैं. अगर वे थोड़ा ज्यादा बोल भी लें तो क्या किसी जिलाधिकारी को उन पर चिल्लाना चाहिए ? जनता से पेश आने की जो ट्रेनिंग हैं, उसमें क्या यही सिखाया जाता है ? 





 

क्या कोई भी व्यक्ति जिलाधिकारी के एक पीड़ित महिला पर चिल्लाते वीडियो को देखेगा तो वह आक्रोशित नहीं होगा ? उस आक्रोश की प्रतिक्रिया भी हुई. उस प्रतिक्रिया के बाद मामले को निपट जाना चाहिए था.


लेकिन लगता है कि मामले से जिलाधिकारी के अहम को ज्यादा ठेस लग गयी. सोशल मीडिया और कतिपय पोर्टल्स में जिलाधिकारी के पक्ष में और जिलाधिकारी से मिलने आए पीड़ितों के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया गया.





इस मामले में कलेक्ट्रेट कर्मचारी संघ ने कार्यबहिष्कार और स्वयं को खतरे की बात लिखते हुए जिलाधिकारी को पत्र लिखा. प्रश्न उठता है कि यह कर्मचारियों का स्वतःस्फूर्त आक्रोश और भय है या फिर यह आक्रोश और भय  “मैनेज” किया गया है ? यह पत्र इसलिए “मैनेज” किए गए प्रतीत होता है क्यूंकि जो जिलाधिकारी कार्यालय में  मौजूद ही नहीं थे, उन्हें भय होने लगा, यह विचित्र है.


यह कोई पहला मौका भी नहीं है, जब जिलाधिकारी कार्यालय में लोग गए हों. स्वयं मैं ऐसे दो मौके याद कर सकता हूँ,जब गोपेश्वर में जिलाधिकारी कार्यालय के बाहर तीखा प्रदर्शन हुआ. 2017 में घाट ब्लॉक के बूरा गाँव के लोग जिलाधिकारी कार्यालय पर घेरा डाले हुए थे. पूरी रात के बाद अगली सुबह भी जब तत्कालीन जिलाधिकारी दफ्तर से बाहर नहीं निकले तो मैं गया, मैंने भाषण दिया कि जिलाधिकारी जनता का सेवक होता है, जिस जिलाधिकारी में जनता का सामना करने का साहस न हो, उसे चले जाना चाहिए. 






उसके बाद तत्कालीन जिलाधिकारी आशीष जोशी बाहर आए और लोगों से मिले. न उन्हें लोगों से मिलने में भय हुआ और ना ही कलेक्ट्रेट के कर्मचारियों को आक्रोश, भय और असुरक्षा महसूस हुई. एक अन्य मौके पर कॉंग्रेस की सरकार के समय गोपेश्वर में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के कैंपस को लेकर आंदोलन चल रहा था. छात्रों ने कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन किया. जिलाधिकारी कार्यालय की ग्रिल बंद थी, बताया गया कि अंदर कोई बैठक चल रही है. जबरन ग्रिल खोल कर छात्र अंदर घुसे, बैठक में मौजूद बद्री-केदार मंदिर समिति के तत्कालीन अध्यक्ष गणेश गोदियाल और तत्कालीन जिलाधिकारी अशोक कुमार को बैठक से बाहर छात्रों के बीच ले आए. तब भी न तो जिलाधिकारी को और ना ही कलेक्ट्रेट के कर्मचारियों को कोई भय या असुरक्षा महसूस हुई.



वर्तमान प्रकरण में जिलाधिकारी के पक्ष में जो भी लोग उतर रहे हैं,वे कह रहे हैं  कि वीडियो को कांट-छांट कर दिखाया जा रहा है. वीडियो में जिलाधिकारी स्वाति एस.भदौरिया जैसे महिला पर चिल्लाती हुई दिखाई दे रहे हैं, क्या वे वैसे नहीं चिल्लाई थीं ? यदि वे वैसे ही चिल्लाईं जैसा वीडियो में दिख रहा है तो क्या यह व्यवहार जिलाधिकारी के पद और गरिमा के अनुकूल था ?

 


किसी जिलाधिकारी के अक्खड़ व्यवहार पर टिप्पणी होने से कलेक्ट्रेट के कर्मचारियों को कैसे असुरक्षा महसूस हो सकती है ? जिन्हें इस पर टिप्पणी होने से असुरक्षा महसूस हो रही है, उन्हें चाहिए कि वे जिलाधिकारी महोदया को आवेदन दें और कहें कि मैडम आपका यह व्यवहार बेहद प्रशंसनीय है, आप प्रतिदिन हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार करें, हम सहर्ष इसके लिए प्रस्तुत हैं ! कर्मचारियों को समझना चाहिए कि अफसर आते-जाते रहते हैं, सिर्फ तात्कालिक दबाव या लाभ के लिए उस जनता के विरुद्ध खड़ा होना, जिसके साथ रोज रहना है, कोई समझदारी का काम नहीं है.


 

निश्चित ही किसी भी प्रकरण में जिलाधिकारी को अपना पक्ष रखने का अधिकार है. लेकिन अपने अहम की तुष्टि के लिए पूरे तंत्र को लगा देना,यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता.



इस पूरे प्रकरण में चमोली जिले की जिलाधिकारी का अक्खड़ व्यवहार तो सामने आया ही, उनकी अपरिपक्वता भी उजागर हुई. दरअसल यह इस छोटे राज्य की दिक्कत है. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में दसियों बरस के बाद कोई अफसर जिला पाता था. उत्तराखंड में नौकरी के दो-चार बरस में ही बड़े जिले के जिलाधिकारी पद पर अफसर बैठा दिये जाते हैं. युवा अवस्था का जोश और अफसर होने का अहम, उस समय चरम पर होता है. कोढ़ में खाज यह कि ऐसी हुकूमत का मुखिया, उन्हें जिलाधिकारी पद पर बैठाये जो खुलेआम कहे कि जिलाधिकारी तो मेरी बेटी हैं, अपने विधायकों को खड़ा रख कर जिलाधिकारी को बैठने को कहे तो दिमाग का सातवें आसमान पर पहुँचना लाज़िमी है.



लेकिन अफसरों को यह समझना चाहिए कि राजनीतिक पकड़ कितनी ही ऊंची क्यूँ न हो, अंततः जनता ही सर्वोपरि है. साथ ही यह भी कि कितनी ही बड़ी कुर्सी पर क्यूँ न बैठे हों, नागरिक समाज व मीडिया के साथ क्लेश और टकराहट पैदा करके आपका अफ़सरी अहम तो तुष्ट हो सकता है, प्रशासन नहीं चल सकता.



-इन्द्रेश मैखुरी   

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