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किसान आंदोलन, ट्रैक्टर परेड और हिंसा

 



दिल्ली में 26 जनवरी को किसान आंदोलन द्वारा किसान ट्रैक्टर परेड का आयोजन किया गया. हजारों की तादाद में ट्रैक्टर सड़कों पर उतरे. इसी के एक हिस्से में हिंसा हुई और एक किसान की मौत हुई. निश्चित ही हिंसा होना ठीक नहीं है,अराजकता का होना भी ठीक नहीं है. इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए. यह आंदोलन के लिए भी उचित नहीं है.


लेकिन इससे कुछ सवाल उठते हैं. पहला यह कि क्या उस ट्रैक्टर परेड की मुख्य विशेषता हिंसा थी ? दूसरा क्या हिंसा एकतरफा थी ? सवाल यह भी है कि क्या किसान आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने हिंसा का समर्थन किया ?




हिंसा की भर्त्सना करते हुए भी यह याद रखा जाना चाहिए कि ट्रैक्टर परेड का बड़ा हिस्सा शांतिपूर्ण था. बहुतेरी जगहों पर दिल्ली के नागरिकों ने इस ट्रैक्टर परेड का स्वागत किया,उन पर पुष्प वर्षा की और उनको खाने-पीने का सामान भी उपलब्ध करवाया.




 जो सिर्फ हिंसा की वारदातों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना चाहते हैं,वो लोग या कहिए कि टीवी चैनल तो पहले दिन से इस आंदोलन को लांछित करने के अभियान में लगे हैं. यदि वे हिंसा की घटना को ही सबसे प्रमुख चीज के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं तो इसमें कोई नयी बात तो नहीं है.


दूसर प्रश्न है कि क्या हिंसा एकतरफा थी ? इस सवाल का सीधा उत्तर है-नहीं. बल्कि हिंसा और उकसावे की कार्यवाही की शुरुआत दिल्ली पुलिस की ओर से हुई. जो रूट दिल्ली पुलिस द्वारा किसान परेड के लिए निर्धारित किया गया,उस रूट को पुलिस ने स्वयं ही बैरिकेड लगा कर कई जगह बाधित किया. यह स्पष्ट तौर पर उकसावे की कार्यवाही थी. इस तरह की तस्वीरें और वीडियो फुटेज हैं जो दोनों तरफ की हिंसा के फर्क को भी साफ करता है. पुलिस सर्वाधिक हमलावर वहाँ है,जहां आंदोलनकारियों की कम संख्या या फिर अकेला आंदोलनकारी उनके चंगुल में फंस गया. 





इसके उलट वीडियो और तस्वीरें हैं,जो दर्शाती हैं कि जहां भीड़ के बीच में कोई पुलिसकर्मी अकेला फंसा या चोटिल हुआ तो किसान आंदोलनकारियों की भीड़ ने उसे बचाया. 




यही चरित्र का मूल फर्क है.

खबरों को जो हो रहा है,उससे अलग रंग में कैसे पेश किया जाता है,उसकी बानगी अमर उजाला में छपी एक तस्वीर में देखी जा सकती है.





 तस्वीर में दिख रहा है कि सुरक्षा बल के एक घायल सैनिक के सिर पर पट्टी रख कर किसान ले जा रहे हैं पर अखबार ने फोटो के नीचे कैप्शन लिखा है- उपद्रवियों ने पुलिस कर्मी को किया घायाल ! सत्ता के पक्ष में सारा विमर्श ऐसे ही गढ़ा जा रहा है.


किसान आंदोलन के किसी नेतृत्वकर्ता ने न तो हिंसा का समर्थन किया,न उसे जायज़ ठहराया. बल्कि सभी किसान संगठनों ने हिंसा को किसान आंदोलन को  नुकसान पहुंचाने वाला करार दिया.हिंसा की खबरों के बाद किसानों को वापस आंदोलन स्थल पर लौटने का आह्वान भी किसान नेताओं ने किया.

लाल किले पर झंडा लगाने को बेहद सनसनीखेज तरीके से पेश किया गया. राष्ट्रध्वज के अपमान की खबर फैलाई गयी और खालिस्तान का झंडा लहराने की अफवाह भी ज़ोरशोर से समाचार माध्यमों की ओर से उड़ाई गयी. बाद में मालूम हुआ कि राष्ट्र ध्वज तो अपनी जगह कायम है. उसे किसी ने छेड़ा तक नहीं है. सिर्फ भावनाएं भड़काने के लिए राष्ट्र ध्वज के अपमान की खबर चलायी गयी. जो झंडा लगाया गया,वो खालिस्तान का झंडा नहीं था. सिखों का धार्मिक झंडा था. लेकिन आंदोलन के लिहाज से देखें तो यह झंडा भी वहां लगाए जाने का कोई औचित्य नहीं था.  किसान आंदोलन के नेता स्वयं झंडा लगाने वाले की भर्त्सना कर रहे हैं. उसके बारे में साफ हो चुका है,वह पहले दिन से आंदोलन को बेपटरी करने की कोशिश कर रहा था. दीप सिद्धू नाम का यह शख्स भाजपा के गुरदासपुर के सांसद सनी देओल का करीबी बताया जा रहा है. हालांकि इस घटना के सामने आने के बाद सनी देओल करीबी को पुरानी बात बता रहे हैं. लेकिन पूर्व में उनकी निकटता के सबूत तो हैं.




 गौरतलब यह भी है कि इस घटनाक्रम के सामने आने के बाद भी दीप सिद्धू खुल कर फ़ेसबुक पर किसान आंदोलन के नेताओं को ही दोषी ठहरा रहा है.


हिंसा के बहाने किसान आंदोलन को जितना भी बदनाम या लांछित करने का प्रयास किया जाये,लेकिन तीन काले कृषि कानूनों का सवाल तो अपना जगह खड़ा है. उससे बचने के लिए ही सत्ता प्रायोजित विमर्श निरंतर गढ़े जा रहे हैं. हिंसा का विमर्श भी उनमें से एक है. वरना कौन नहीं जानता कि इस आंदोलन में हिंसा की शुरुआत तो सत्ता पक्ष की ओर से राष्ट्रीय राजमार्ग को खुदवा कर की गयी. सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा जिस सरकार का दायित्व है,जब वह स्वयं राष्ट्रीय संपत्ति को खोद देती है और उसके बाद वह और उसके समर्थक, दूसरों पर हिंसा का आरोप लगाते हैं तो इससे बड़ा दोमुंहापन और क्या हो सकता है भला !


 जब केंद्र सरकार वार्ता में डेढ़ साल तक कृषि कानूनों को स्थगित रखने का प्रस्ताव देती है तो स्पष्ट है कि इन कानूनों को रोकना मुमकिन है. फिर सवाल यह है कि लॉकडाउन के बीच इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाने और राज्यसभा में माइक बंद करके पास करवाने की जल्दबाज़ी क्यूं और किसका हित साधने  के लिए की गयी ? यह असल सवाल है और इस सवाल को निरंतर उठते रहना चाहिए.


-इन्द्रेश मैखुरी      

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