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इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश योगी सरकार के डॉ कफ़ील के प्रति पूर्वाग्रह की गवाही

 


अंततः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने डॉ. कफ़ील खान की रिहाई का फैसला सुना ही दिया. डॉ.कफ़ील खान की माता नुजहत परवीन द्वारा दाखिल की गयी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) पर फैसला सुनाते हुए इलाहबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश,न्यायमूर्ति गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह ने डॉ.कफ़ील खान की रिहाई का आदेश दिया.





अपने 42 पृष्ठों के फैसले में उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार और अलीगढ़ प्रशासन द्वारा डॉ.कफ़ील खान को  राष्ट्रीय सुरक्षा कानून(रा.सु.का) में निरुद्ध करने और रासुका की अवधि में विस्तार करने को पूरी तरह अवैध करार दिया है.


इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले में जो सिलसिलेवार ब्यौरा मिलता है,उससे स्पष्ट होता है कि किस तरह राजनीतिक पूर्वाग्रह और द्वेष के चलते डॉ. कफ़ील को बीते आठ महीनों में जेल में कैद रखा गया. डॉ.कफ़ील ने 12 दिसंबर 2019 को सी.ए.ए – एन.आर.सी के विरुद्ध, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में योगेन्द्र यादव के साथ  600 छात्र-छात्राओं की एक सभा को संबोधित किया. उक्त सभा में उनके भाषण को भड़काऊ करार देते हुए डॉ.कफ़ील के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया.


12 जनवरी 2020 को उक्त मामले में डॉ. कफ़ील की गिरफ्तारी हुए. उसके पश्चात जिलाधिकारी अलीगढ़ ने उन्हें मथुरा जेल स्थानांतरित करने के आदेश कर दिये. 10 फरवरी 2020 को मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी( सी.जे.एम) अलीगढ़ की अदालत ने डॉ. कफ़ील को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया. डॉ.कफ़ील की जमानत याचिका का सरकारी वकील द्वारा पुरजोर विरोध किया गया,लेकिन अदालत ने जमानत देते हुए लिखा कि अपराध की प्रकृति और उस में सजा के प्रावधानों के हिसाब से अभियुक्त काफी दिन जेल में रह गया है,इसलिए जमानत स्वीकृत की जाती है. उत्तर प्रदेश सरकार चूंकि डॉ.कफ़ील को जेल में बंद रखने पर आमादा थी,इसलिए जमानत मिलने के बाद भी उन्हें रिहा नहीं किया गया. तीन दिन तक जब डॉ कफ़ील रिहा नहीं किए गए तो सी.जे.एम. ने एक संदेश वाहक भेज कर मथुरा के जेल अधीक्षक को डॉ.कफ़ील को रिहा करने का आदेश दिया.


 इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में दर्ज विवरण के अनुसार डॉ.कफ़ील इस आदेश के बाद भी रिहा नहीं किए गए. बल्कि इसी दिन यानि 13 फरवरी को अलीगढ़ के इंस्पेक्टर और सी.ओ. ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अलीगढ़ को तथा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने जिला अधिकारी अलीगढ़ को डॉ.कफ़ील पर रासुका लगाने की संस्तुति की.  इन पत्रों के आधार पर  जिलाधिकारी,अलीगढ़ ने उसी दिन यानि 13 फरवरी को डॉ.कफ़ील पर रासुका लगा दी. इस तरह 10 फरवरी को सी.जे.एम. कोर्ट ने डॉ.कफ़ील को जमानत पर रिहा करने के आदेश  दिये पर वो रिहा नहीं किए गए. पुनः 13 फरवरी 2020 को जब अदालत ने उन्हें रिहा करने का आदेश लेकर संदेश वाहक मथुरा भेजा तो उस आदेश को प्राप्त करने में देर की गयी और इस बीच उन पर रासुका लगा दिया गया. 

 

उत्तर प्रदेश के डॉ.कफ़ील के प्रति इस द्वेषपूर्ण रवैये को चिन्हित करते हुए उच्च न्यायालय ने अपने फैसले के पृष्ठ संख्या 21 में लिखा कि डॉ कफ़ील के विरुद्ध रासुका लगाने का फैसला 10 फरवरी 2020 तक तो नहीं लिया गया,जिस दिन सी.जे.एम कोर्ट ने उनको जमानत दी. यह तो जब 13 फरवरी को उनकी रिहाई का आदेश लेकर संदेश वाहक अदालत ने मथुरा जेल भेजा,तब पुलिस अफसरों ने रासुका लगाने के संस्तुति पत्र लिखे और इस आधार पर अलीगढ़ के जिलाधिकारी ने डॉ. कफ़ील को रासुका में निरुद्ध करने की संस्तुति की.


उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ कफ़ील पर रासुका लगाने और दो बार उसकी अवधि बढ़ाने के पक्ष में जो दलीलें उच्च न्यायालय में दी,वे बेहद हास्यास्पद हैं.उत्तर प्रदेश सरकार के  अपर महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में कहा कि डॉ.कफ़ील जेल से भी ए.एम.यू. के छात्रों के संपर्क में हैं और फिर व्यवस्था बिगाड़ सकते हैं.यह ऐसा तर्क है जो डॉ कफ़ील से ज्यादा उत्तर प्रदेश सरकार की कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है. यदि रासुका में अन्य जिले में निरुद्ध व्यक्ति,किसी दूसरे जिले में कानून व्यवस्था के विरुद्ध लोगों को भड़का सकता है तो इस का अर्थ यह है कि उस राज्य में कानून व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गयी है. बहरहाल अपर महाधिवक्ता के इस तर्क को उच्च न्यायालय ने आधारहीन पाया.   


डॉ. कफ़ील के जिस भाषण को भड़काऊ बता कर उन्हें गिरफ्तार किया गया और फिर रासुका में निरुद्ध किया गया,उसे उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में पूरा उद्धरित किया है. वह भाषण बार-बार संविधान की बात करता है,देश की एकता-अखंडता की बात करता है. सबसे पहले मनुष्य होने की बात करता है. भाषण कहता है कि हमें लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए,लेकिन लड़ाई का मतलब शारीरिक हिंसा नहीं होता,बल्कि हमें लोकतांत्रिक तरीके से लड़ना होगा.


उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा कि उक्त भाषण, सरकार की नीतियों की आलोचना करता है, परंतु भड़काऊ नहीं है. उच्च न्यायालय ने यह भी लिखा कि भाषण की जिन बातों को भड़काऊ बताया गया है,उन्हें संदर्भ से काट कर देखा गया. उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि जिलाधिकारी अलीगढ़ ने भाषण के चुनिंदा अंश ही पढे. उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रथम दृष्टया भाषण ऐसा नहीं है कि कोई तार्किक व्यक्ति उस नतीजे पर पहुंचे,जिस नतीजे पर जिलाधिकारी अलीगढ़,इस भाषण के आधार पर पहुंचे.


 उच्च न्यायालय ने अपने फैसले के निर्णायक बिन्दु में लिखा कि रासुका के तहत डॉ कफ़ील को निरुद्ध किया जाना और रासुका की अवधि का विस्तार,दोनों ही कानून की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. डॉ.कफ़ील को बंदी बनाए जाने को उच्च न्यायालय ने अवैध करार दिया और उनकी तत्काल रिहाई के आदेश दिये.


इस फैसले से एक बार फिर स्पष्ट हुआ कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार कानून के अनुसार आचरण नहीं कर रही,बल्कि वह अपने हर कदम को ही कानून सिद्ध करने के मुगालते में है. डॉ.कफ़ील के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार का दुराग्रह,इस फैसले से पुनः सिद्ध होता है.


-इन्द्रेश मैखुरी

 

 

 

 

 

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