पीटी ऊषा के खेल जगत में उभार पर 1988 में हिन्दी के ख्यातिलब्ध
कवि वीरेन डंगवाल ने लिखा था :
“काली तरुण हिरनी
अपनी लंबी चपल टांगों पर
उड़ती है मेरे गरीब देश की बेटी
आँखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली विनम्रता
इसलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की छ्टा
मत बैठना पीटी ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति पर मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए मुंह से चपचप की आवाज़ होती है ?
कोई गम नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के सबसे
खतरनाक खाऊ लोग हैं ”
बरबस ही वीरेन दा की यह कविता याद आई. तुम वही पीटी ऊषा हो जिसका जिक्र इस कविता में है ? या वो पीटी ऊषा कहीं पीछे छूट गयी है ? खेल से सन्यास लिया तो वीरेन दा की कविता वाली “अपनी चपल टांगों पर उड़ती गरीब देश की बेटी” को भी रिटायर कर दिया है ? अब जो ऊषा बची है, वह संवेदनहीन है, खुर्राट है, खतरनाक है ! उसे खिलाड़ियों का साथ नहीं भाता, बल्कि उसे प्रिय है, कुर्सी पर बैठने वाला आका ! आका खुश रहे इसलिए वो अपराधी के पक्ष में खड़े होने का खतरा मोल लेकर भी बता सकती है, अपराध के खिलाफ आवाज़ उठाने को अनुशासनहीनता. उसके अनुसार तो यौन उत्पीड़न बुरा नहीं है, यदि कुछ बुरा है तो वो है उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाना. वे समझती हैं कि यह खेल और देश के लिए हानिकारक है. गोया खिलाड़ियों का यौन उत्पीड़न और उस पर चुप्पी, खेल और देश के लिए कोई फक्र की बात हो !
देश के लिए, खेल के लिए तो यौन उत्पीड़न के विरुद्ध उठते स्वर घातक नहीं है. वे आश्वस्तकारी हैं कि खेल संघ में बैठे हुए अपराधियों को युवा खिलाड़ियों की ज़िंदगियों से बेखटके खेलने नहीं दिया जाएगा.
इस तरह ये तो खेल और देश के हित में हैं. पर एक निश्छल खिलाड़ी से खुर्राट प्रशासक में तब्दील हो चुकी ऊषा यदि इसे घातक समझती हैं तो जाहिर है कि वे खेल और खिलाड़ियों से खिलवाड़ करने वालों पर मंडराते खतरे से द्रवित हैं. वीरेन दा तो कविता में ऊषा को गावस्कर सी छटा से मुक्त देख रहे थे पर वे तो अब छठे हुओं के साथ हैं, उनके सामने गावस्कर की क्या बिसात है ! वो तो टेनिस खेल लेती है, उनके साथ जो सरेआम नारा लगाते हैं- गोली मारो ...... लों को !
पक्ष ले सकती हैं, उनका, जिन पर हत्या और हत्या के प्रयास जैसे अपराधों के 38 मुकदमें हैं ! जिसके पक्ष में आप खेल बिरादरी के लड़ाकू योद्धाओं की लानत-मलामत कर रही हैं, उस पर 38 जो चस्पा हैं, वे मेडल नहीं हैं, आपराधिक मुकदमें हैं !
अपराधी के लिए हो सकता
है मुकदमें ही मेडल हों पर अपराध को मेडल समझने वालों की खातिर आप मेडल वालों को अपराधी
क्यूं समझ रहीं हैं, ऊषा जी ?
क्या राज्य सभा की सीट और भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष
के पद की पट्टी आँखों पर इतनी कसी हुई है कि अपराधी और खिलाड़ी का फर्क ही धुंधला हो
गया है ?
वीरेन दा लिखते हैं- वे
वे जो मानते हैं
बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं !
अफसोस, ऊषा जी, बेआवाज़ जबड़ों को सभ्यता बताने वाले सबसे खतरनाक खाऊ लोगों की जमात में शामिल
हो गयी हैं, आप !
-इन्द्रेश मैखुरी
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