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भू कानून कमेटी की रिपोर्ट : सरकार इस च्यूइंग गम को अभी और चबाएगी !











उत्तराखंड में भू कानून का मसला बीरबल की खिचड़ी जैसा हो गया है. जिन्होंने ज़मीनों की बेरोकटोक बिक्री के सारे रास्ते खोले यानि वर्तमान सत्ताधारी भाजपा, वही इस सख्त भू कानून की खिचड़ी को पका रहे हैं.












भू कानून के लिए पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने 05 सितंबर 2022 को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को अपनी रिपोर्ट सौंपी. रिपोर्ट का ब्यौरा कुछ-कुछ मीडिया के जरिये बाहर आया है. इस बीच सत्ता के किसी भी कदम पर लहालोट होने को, हर घड़ी तैयार रहने वाले मीडिया और खास तौर पर पोर्टल्स ने रिपोर्ट देने भर को ही उपलब्धि की तरह प्रचारित करते हुए महिमामंडन भी शुरू कर दिया. एक शीर्षक था- खंडूड़ी से भी सख्त भू कानून बनाएँगे धामी ! अरे महाराज थोड़ा सब्र करो. पहले यह तो बताओ कि बाहर वालों के लिए 250 वर्गमीटर जमीन खरीदने की सीमा के अलावा, जिसे खंडूड़ी जी का सख्त कानून कह रहे हैं, उसमें सख्त क्या था ? सख्त ही होता तो उत्तराखंड की ज़मीनें बिकती क्यूँ ?


और पोर्टलों के अतिउत्साही, सरकार प्रेमी पत्रकार बंधुओ, आपको बताया किसने कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सख्त भू कानून बनाने जा रहे हैं ? मुख्यमंत्री स्वयं तो बयान दे रहे हैं कि समिति की रिपोर्ट मिल गयी है, सरकार उसका अध्ययन करेगी और उसके आधार पर फैसला लेगी.















 यह बात मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने मीडिया को दी गयी बाइट में कही और यही बात उन्होंने भाषण में भी कही.












मुख्यमंत्री का वक्तव्य तो साफ बता रहा है कि भू कानून नामक बीरबल की यह खिचड़ी, अभी और पकाई जानी है. यह गज़ब है कि पहले भाजपा की ही सरकार ने ज़मीनों के बेरोकटोक बिक्री का इंतजाम करने के लिए भू कानून में संशोधन किए, फिर उसी भाजपा की सरकार के अगले मुख्यमंत्री ने भू कानून के अध्ययन के लिए कमेटी बनाई और अब सरकार कमेटी की रिपोर्ट का अध्ययन करेगी. मुख्यमंत्री जी सरकार स्वयं कर लेगी, कमेटी का रिपोर्ट का अध्ययन या इसके लिए पुनः किसी सेवानिवृत्त नौकरशाह और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को रोजगार देंगे आप ? जैसा भी करें पर कमेटी की रिपोर्ट का अध्ययन करने के लिए फिर कमेटी बना दें तो कमेटी बनाने के इस हुनर के लिए कमेटी शिरोमणि के ताज के हकदार तो आप हो ही जाएंगे, मुख्यमंत्री जी !


कमेटी ने क्या सिफ़ारिशें की, इसका कोई आधिकारिक ब्यौरा अभी उपलब्ध नहीं है. अलबत्ता समाचार पत्रों में कमेटी के 23 संस्तुतियों की चर्चा है. सबसे रोचक सुझाव जो अखबारों में छपा है, वो यह है कि सरकार को अपनी ज़मीनों पर बोर्ड लगाने चाहिए ! बताइये तीन सेवानिवृत्त नौकरशाहों और एक भाजपा के प्रबुद्ध नेता वाली समिति ने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ाने के बाद क्या बेमिसाल सलाह दी है सरकार को कि यदि सरकार को अपनी ज़मीनें बचानी है तो उसे उन ज़मीनों पर बोर्ड लगाना चाहिए ! इतनी बड़ी सरकार और उसका भारी-भरकम सशक्त तंत्र जिन ज़मीनों को नहीं बचा सकता, उन्हें एक बोर्ड बचाएगा. यह वैसा ही जैसे लोगों को प्राण रक्षा के लिए डॉक्टर से ज्यादा ताबीज पर भरोसा रहता है. इस पर तुर्रा ये कि मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं- अध्ययन करेंगे !


अखबारों में छपी भू कानून कमेटी के रिपोर्ट के अंश के अनुसार कमेटी ने सिफ़ारिश की है कि औद्योगिक एवं कृषि प्रयोजन के लिए खरीदी गयी गयी भूमि का उपयोग रिज़ॉर्ट बनाने जैसे अन्य प्रयोजनों के लिए हो रहा है. समिति ने सिफ़ारिश की कि ऐसी अनुमति जिलाधिकारी के स्तर से देने के बजाय शासन स्तर दी जाये. तो समिति के विद्वत जनों को ऐसा लगता है कि भूमि खरीद के समय घोषित उद्देश्य के बजाय अन्य उद्देश्य के लिए भूमि का उपयोग अथवा दुरुपयोग इसलिए हो रहा है कि इसकी अनुमति, जिलाधिकारी स्तर से दी जा रही है ! कितने भोले हैं कमेटी के माननीय सदस्य गण ! माननीय सदस्य गणों को शायद यह जानकारी नहीं होगी, बड़े-बड़े लोगों को छोटी-छोटी बातें पता भी नहीं चलती. जानकारी यह है कि 2018 में त्रिवेन्द्र रावत ने मुख्यमंत्री रहते हुए औद्योगिक प्रयोजन के नाम पर ज़मीनों की बेहिसाब खरीद का कानून पास किया, उसमें धारा 143 में 143 क और ख जोड़ कर, यह प्रावधान किया कि औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदी जा रही भूमि का भू उपयोग नहीं बदलवाना पड़ेगा. इसमें यह बाध्यता थी कि जिस प्रयोजन के लिए भूमि खरीदी गयी है, यदि उसके इतर उसका उपयोग किया जाएगा तो जमीन वापस ले ली जाएगी. हालांकि औद्योगिक प्रयोजन की जितनी व्यापक परिभाषा थी, उसमें यह बाध्यता सजावटी या दिखावटी किस्म की ही अधिक थी.


लेकिन जून 2022 में हुए उत्तराखंड विधानसभा के बजट सत्र में उक्त कानून में संशोधन करते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने यह बाध्यता समाप्त कर दी है. इसके पीछे का कारण यह था कि बड़ी पूंजी के बहुत सारे मालिकों ने जिन उद्देश्यों के लिए ज़मीनें खरीदी, वे, वह काम शुरू नहीं कर पाये या चला नहीं पाये. लेकिन हाथ आई बेशकीमती ज़मीनें वे खोना नहीं चाहते थे. इसलिए सरकार को उन्होंने “अप्रोच” किया और सरकार ने उनके साथ हुई “डील” को सील” करते हुए जिस प्रयोजन के लिए भूमि ली, उसके लिए उपयोग न होने पर भूमि सरकार में निहित होने का प्रवाधान, विधानसभा में कानून पास करके हटा दिया.


जिस सरकार ने यह प्रावधान खत्म किया, उसी सरकार की कमेटी, ऐसे कानूनी प्रावधान से अंजान बनते हुए, भूमि के प्रयोजन से इतर उपयोग के लिए जिलाधिकारी स्तर पर अनुमति को कारण के तौर पर चिन्हित करे तो यह हास्यास्पद है. यह सुझाव अपने आप में सब शक्तियों के केन्द्रीकरण का सुझाव है कि भूमि को लेकर जो “डील” हो, वह जिलों के स्तर पर न हो कर सीधे शासन स्तर पर हो !


अखबारों में प्रकाशित कमेटी के रिपोर्ट के विवरण में कहा गया है कि विभिन्न प्रयोजनों के लिए जो भूमि खरीदी जाएगी, उसमें समूह ग और समूह घ के पदों में स्थानीय लोगों को रोजगार दिया जाएगा. यह प्रावधान और तत्संबंधी शासनादेश तो उद्योगों के लिए राज्य में पहले से है. लेकिन क्या यह उत्तराखंड में सिडकुल के तहत लगे उद्योगों में लागू हो रहा है ? वर्तमान मुख्यमंत्री, जब राज्य में भाजपा युवा मोर्चे के अध्यक्ष हुआ करते थे तो वे भी सिडकुल में लगे उद्योगों में स्थानीय युवाओं को 70 प्रतिशत रोजगार का नारा लगाया करते थे. लेकिन इसी साल अप्रैल के महीने में वही पुष्कर सिंह धामी, मुख्यमंत्री की हैसियत से यह घोषणा कर चुके हैं कि सिडकुल की फैक्ट्रियों में उच्च तकनीकी पदों पर स्थानीय उम्मीद्वार नहीं मिल रहे हैं, इसलिए इन पदों पर वे, बाहरी राज्यों के उम्मीद्वारों की भर्ती की अनुमति देने जा रहे हैं.


इस तरह देखें तो समिति की जो सिफ़ारिशें हैं, उसके विपरीत कानून बनाने या घोषणा करने का काम,वही मुख्यमंत्री पहले कर चुके हैं, जिनको समिति रिपोर्ट सौंप रही है.


कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित ब्यौरे के अनुसार हिमाचल प्रदेश के भू कानून का बार-बार उल्लेख हुआ है. लेकिन प्रकाशित ब्यौरे से तो नहीं लगता है कि हिमाचल के भू कानून की तरह कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों के लिए देने पर रोक लगाने की सिफ़ारिश करने का साहस भी कमेटी कर सकी है.  हिमाचल प्रदेश टिनैन्सी एंड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 में प्रावधान है कि कोई भी जमीन,जो कि कृषि भूमि को किसी गैर कृषि कार्य के लिए नहीं बेची जा सकती. उक्त अधिनियम में लिखा है कि “Agricultural land cannot be sold to non-agriculturist.” धोखे से यदि बेच दी जाये तो जांच के उपरांत यह जमीन सरकार में निहित हो जाएगा.


जिस तरह से राज्य में कृषि भूमि का रकबा निरंतर घट रहा है, उसके चलते हिमाचल प्रदेश के कानून की धारा 118 जैसा प्रावधान किया जाना बेहद जरूरी है. लेकिन कमेटी ने ऐसा कहना भी मुनासिब नहीं समझा.


भू कानून को लेकर अगस्त 2021 में गठित कमेटी ने जब सुझाव मांगे तो इस लेखक ने भी कमेटी को सुझाव दिये थे. हमारा यह मानना है कि उत्तराखंड में भूमि की वास्तविक स्थिति जानने के लिए तत्काल भूमि बंदोबस्त की आवश्यकता है. अंतिम भूमि बंदोबस्त 1958-64 के बीच हुआ था. यह चालीस साल बंदोबस्त था, जो 2004 में खत्म हो गया. नए सिरे से भूमि बंदोबस्त होना चाहिए, भूमि सुधार की आवश्यकता है, भूमि के संरक्षण का कानून बनाने की आवश्यकता है. भूमि का पुनर्वितरण करते हुए,प्रदेश में जो भूमिहीन हैं, खास तौर पर प्रदेश के मूल निवासी दलित उन्हें भूमि दी जानी चाहिए. इस प्रक्रिया के बाद चकबंदी की बात होनी चाहिए. और सबसे प्रमुख बात यह है कि उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950) में 2018 और 2022 में किए गए संशोधन को रद्द किया जाना चाहिए.


लेकिन कमेटी की रिपोर्ट और उस पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की प्रतिक्रिया बता रही है कि भू कानून के इस च्यूइंग गम को सरकार कुछ समय और चबाने के मूड में है.


-इन्द्रेश मैखुरी

 

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