दो- तीन दिन के अंतराल में उत्तराखंड और बिहार में
दो प्रशासनिक अफसरों का ऐसा चेहरा सामने आया, जिसे देख कर वे बाकी जो लगें, पर पढे-लिखे किसी
नजरिए से नहीं लगते.
पौड़ी में एक उपजिलाधिकारी
, एक युवा को गाली दे रहे हैं, धक्का दे रहे हैं, कह रहे हैं- इतना मारूँगा.....
उक्त पीसीएस अफसर के पक्ष में तर्क गढ़ने की तमाम कोशिशें
चल रही हैं. वो देर रात तक काम कर रहे थे, लड़का बदतमीज था, वीडियो का एक ही हिस्सा वायरल हुआ आदि-आदि. राज्य के पीसीएस अफसरों की एसोसिएशन
भी अपने अफसर के पक्ष में उतर आई है. वो लड़का
क्या है, कैसा है, यह कोई चरित्र प्रमाण
पत्र देने का मसला नहीं है. लेकिन गाली देता हुआ, हाथ चलाता हुआ
व्यक्ति तो दिखाई दे रहा है. आप देर तक काम कर रहे हैं तो क्या आपको यह हक है कि उसकी
एवज में गाली-गलौच कर सकते हैं, हाथापाई कर सकते हैं ? यदि यह मान भी लें कि लड़का अभद्रता कर रहा था तो जवाब में अफसर और उनके साथ
खड़े कर्मचारी गाली-गलौच करेंगे, हाथापाई करेंगे और ऐसा करना न्यायोचित
ठहराया जाएगा ?
दूसरा प्रकरण बिहार की राजधानी पटना से है. रोजगार की
मांग कर रहे एक युवा पर एडीएम बताए जा रहे अफसर ताबड़तोड़ लाठी चला रहे हैं. लड़का सड़क
पर लेटा हुआ है और एडीएम उस पर लाठी चलाए जा रहे हैं. लड़के के हाथ में तिरंगा दिख रहा
है और लाठी चलाने वाले अफसर के साथ खड़ी पुलिस बस यह प्रयास कर रही है कि किसी तरह से
लड़के के हाथ से तिरंगा ले आया जाए.
हम तो बचपन से पढ़ते-सुनते आए थे कि यदि किसी प्रदर्शन
के दौरान लाठी चलाने की नौबत आए तो मजिस्ट्रेट लाठीचार्ज का आदेश देता है. पटना की
सड़कों पर मजिस्ट्रेट आदेश नहीं दे रहा, वो लाठी चलाने के कौशल
पर हाथ आजमा रहा है और उसमें पुलिस की क्रूरता को भी मात दे रहा है.
बिहार में तो सरकार ने उक्त घटना की जांच के आदेश दे दिये, लेकिन उत्तराखंड में ? यहां प्रवृत्ति है कि बेशर्मी
की हद तक अफसरों का बचाव करना है. 15 जुलाई को हेलंग में महिलाओं से घास छीनने की घटना
हुई. चमोली जिले के जिलाधिकारी हिमांशु खुराना अपने पद की सारी गरिमा को ताक पर रख
कर महिलाओं को अपराधी सिद्ध करने के लिए तमाम जतन करने लगे. उनके आचरण से ऐसा भान हो
रहा था, जैसे वे चमोली जिले में जनता के नहीं बल्कि परियोजना
निर्माता कंपनी टीएचडीसी के हितों के संरक्षण के लिए तैनात किए गए हों ! निरंतर उन्हें
हटाने की मांग हो रही है, लेकिन उत्तराखंड सरकार को साँप सूंघ
गया है. वहाँ उपजिलाधिकारी, तहसीलदार से लेकर पुलिस के इंस्पेक्टर
तक सब कंपनी के कारकुन की तरह ही पेश आ रहे थे, लेकिन तब भी सरकार
इनमें से किसी पर कार्यवाही करने को तैयार नहीं है. वे केवल समय बिता कर मांग के ठंडा
होने की प्रतीक्षा कर रही है.
आईएएस-पीसीएस
अफसर बनने के लिए परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है. यह प्रचलित धारणा है कि यह बेहद कठिन
परीक्षा होती है और सालों-साल की मेहनत के बाद बेहद मेधावी अभ्यर्थी ही उसे उत्तीर्ण
कर पाते हैं. पर प्रश्न यह है कि इन मेधावी अभ्यर्थियों की मेधा में आम जन के प्रति
घृणा की हद तक हिकारत की भावना क्यूं भरी होती है ? यह कैसी मेधा
है, जो इन्हें प्रभावशाली व्यक्तियों के सामने मिमियाना और आम
जन पर गुर्राना सिखाती है, यह उनकी मेधा है या ट्रेनिंग है, जो उनको ऐसा बनाती है ?
अफसर लोगों से भी यही प्रश्न है कि यदि गालीबाज़ ही बनना
था, कंपनी/माफिया आदि के एजेंट की तरह ही काम करना था, लाठी
चला कर शक्ति प्रदर्शन का ही शौक था तो इतने साल पढ़ाई-लिखाई में काहे व्यर्थ गँवाए
भाई ? सीधे किसी लठैती या बंदूकबाजी के गैंग में भर्ती होते,मोटी-मोटी गालियां बकते, रात दिन लाठी-गोली चलाते और
बाहुबली कहलाते ! प्रशासनिक सेवाओं में आकर, बाहुबलियों के “फील्ड” का भारी नुकसान कर दिया हुजूर आपने !
-इन्द्रेश मैखुरी
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