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उत्तराखंड सरकार के सौ दिन पर दो बात

 










उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली सरकार के सौ दिन पूरे हो गए हैं. यूं राज्य में 21 साल में यदि सर्वाधिक तेजी से कुछ बदला तो वो हैं- मुख्यमंत्री के चेहरे !


21 साल के राज्य और सौ दिन की सरकार की उपलब्धि समझनी हो तो सरकार के 93 वें दिन की उस खबर पर गौर करना चाहिए, जिसमें एक गर्भवती स्त्री सड़क के अभाव में रात में टॉर्च लेकर पैदल चल कर छह घंटे में सड़क तक पहुंची. 










गर्भवती स्त्रियों की इस तरह की खबर या इससे और भी दुखद खबर, 21 साल के उत्तराखंड की स्थायी पहचान है. मुख्यमंत्री का चेहरा कितना ही कोमल क्यूँ न हो, उस पर सत्ता की कितनी ही चमक क्यूं न हो, उत्तराखंड और खास तौर पर पहाड़ी क्षेत्रों की यह कठोर जमीनी सच्चाई है !


जमीनी सच्चाई से याद आया कि लगभग साल भर पहले ही उत्तराखंड में जमीन के कानून को लेकर एक हैश टैग चला था- उत्तराखंड मांगे भू कानून. यूं तब भी उस हैश टैग के बारे में मेरी राय यह थी कि यह बात उठाने वाले तीन साल देर से जागे हैं. भाजपा की ही सरकार रहते हुए त्रिवेन्द्र रावत ने मुख्यमंत्री के तौर पर 2018 में ज़मीनों की खरीद-बिक्री के कानून को ऐसा बना दिया कि कोई चाहे तो पूरा पहाड़ खरीद ले. जिस वक्त यह किया गया, उस वक्त भी इसके खिलाफ आवाज़ें उठी थी, लेकिन उन स्वरों को पर्याप्त तवज्जो नहीं मिली थी. फिर एकाएक देर से जागने वालों ने यह हैश टैग ट्रेंड कराना शुरू किया. उसमें वे लोग भी शामिल थे, जो त्रिवेन्द्र रावत द्वारा ज़मीनों की खुली बिक्री का कानून पारित कराए जाते समय, कानून की इस तब्दीली की समर्थक थे.


वास्तविक रूप से उत्तराखंड की ज़मीनों की बेरोकटोक बिक्री से चिंतित लोगों के अलावा इस हैश टैग के पीछे, भाजपा के भीतर का जो हिस्सा काम कर रहा था, उसका मन्तव्य तो उसकी आड़ में भी सांप्रदायिक विभाजन पैदा करना ही था. जमीन ही नहीं, जल और जंगल पर स्थानीय लोगों के अधिकार की मांग तो उत्तराखंड राज्य की मांग के साथ ही चली आ रही मांग थी.


बहरहाल भू कानून का सवाल एक मुद्दा बना. विधानसभा चुनाव से कुछ ही वक्त पहले मुख्यमंत्री बने पुष्कर सिंह धामी ने सेवानिवृत्त मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में इस मसले पर एक कमेटी भी बना दी. चुनाव से पहले कमेटी ने लोगों से इस मसले पर सुझाव आमंत्रित भी किया.


इस मसले में बहुत स्पष्ट है कि मसला सिर्फ जमीन की खरीद-बिक्री के कानून का ही नहीं है, इससे जुड़ी और भी बातें हैं. राज्य में भूमि बंदोबस्त की जरूरत है. अंतिम भूमि बंदोबस्त 1958-64 के बीच हुआ था. यह चालीस साला भूमि बंदोबस्त था, जो 2004 में खत्म हो गया. इसके अलावा मुकम्मल भूमि सुधार की जरूरत है, जिसमें भूमिहीनों में भूमि वितरण भी शामिल है. पहाड़ में बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति के लोग हैं, जो भूमिहीन हैं. उन्हें भूमि का मालिकाना प्रदान करना, एक नितांत आवश्यक कदम है. भूमि सुधार से आगे बढ़ते हुए, चकबंदी की जरूरत है. यानि मसला सिर्फ भूमि की खरीद-बिक्री रोकने का नहीं बल्कि भूमि सुधार और भूमि को उपजाऊ बनाने का भी है.

 

लेकिन अपने पिछले कार्यकाल और वर्तमान कार्यकाल में कमेटी-कमेटी खेलते मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस दिशा में कुछ भी ठोस नहीं किया. वे मजबूत भू कानून का जाप करते रहे और इसी महीने में हुए विधानसभा के सत्र में उन्होंने त्रिवेंद्र रावत द्वारा कमजोर किए गए कानून के रहे-बचे कस-बल भी निकाल दिये.


 उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 143 में कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों के लिए उपयोग करने के लिए उसका भू उपयोग बदलवाने का प्रावधान था. 2018 में इसी धारा 143 में 143 क और ख जोड़ कर त्रिवेंद्र रावत ने यह कानून पास करवा दिया कि यदि औद्योगिक प्रयोजन के लिए कृषि भूमि खरीदी जाएगी तो उसका भू उपयोग नहीं बदलवाना पड़ेगा. लेकिन इसमें यह बाध्यता थी कि यदि जिस प्रयोजन के लिए भूमि खरीदी गयी है, यदि उसके इतर उसका उपयोग किया जाएगा तो जमीन वापस ले ली जाएगी. हालांकि औद्योगिक प्रयोजन की जितनी व्यापक परिभाषा थी, उसमें यह बाध्यता सजावटी या दिखावटी किस्म की ही अधिक थी.














लेकिन मुंह से सख्त भू कानून का जाप करने वाले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को यह बाधा भी बर्दाश्त नहीं हुई और विधानसभा के बीते सत्र में यह बाधा खत्म कर दी गयी. इसका आशय यह है कि अब किसी निहित उद्देश्य के नाम पर  जमीन खरीद कर, उसका कोई भी उपयोग किया जा सकता है.


सौ दिन में यह कदम वह बानगी हैं, जो बताते हैं कि भाजपा सरकार और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी 2.0 की दिशा और उसके चलते उत्तराखंड की दशा क्या होने वाली है !


-इन्द्रेश मैखुरी

 

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