अंग्रेजी में एक शब्द है- Mercenary (मर्सनरी) . इसका अर्थ होता है, ऐसा सैनिक
जिसका कोई देश नहीं, कोई
विचारधारा नहीं, केवल
लड़ना ही उसका काम होता है. जो लड़ने को रख ले, वह उसके लिए कभी भी, कहीं भी लड़ने
को तैयार होता है. विशेषज्ञों का कहना है कि मर्सनरी यानि भाड़े के सैनिकों का
इतिहास भी लगभग युद्ध के इतिहास जितना ही पुराना है.
1989 में भाड़े के सैनिक (mercenary) भर्ती करने, उनका इस्तेमाल करने, उनका वित्तपोषण एवं प्रशिक्षण करने के विरुद्ध एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसने भाड़े के सैनिकों को परिभाषित किया.
संयुक्त
राष्ट्र संघ ने भाड़े के सैनिकों के इस्तेमाल के जरिये मानवाधिकारों के हनन और
आत्म निर्णय के अधिकार में बाधा पहुंचाने के मामलों के अध्ययन के लिए बाकायदा एक
वर्किंग ग्रुप बनाया हुआ है. वर्किंग ग्रुप तो मर्सनरी गतिविधियों के खात्मे की
सिफ़ारिश करता है. लेकिन हकीकत यह है कि दुनिया में भाड़े के सैनिकों की कंपनी चलाने
का व्यापार बहुत बड़ा है. अमेरिका के निक्सन रणनीतिक केन्द्र के निकोलस के. ग्वोसडेव
ने 2004 में अपने एक लेख में लिखा कि बीस हजार से अधिक निजी
ठेकेदार दुनिया के 50 से अधिक देशों में काम कर रहे हैं. तब से यह संख्या निरंतर
बढ़ ही रही है.
इराक से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक अमेरिका, मिलिटरी कांट्रैक्टरों द्वारा सप्लाई किए गए भाड़े के सैनिकों का इस्तेमाल
करता रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान में तकरीबन 17000 हजार मिलिटरी कांट्रैक्टरों काम कर रहे थे. बीते बरस यह संख्या
उस वक्त तेजी से घटी जब अमेरिका के राष्ट्रपति
जो बाइडेन ने घोषणा कर दी कि अफ़ग़ानिस्तान की सेनाओं को अब अपनी रक्षा खुद ही करनी होगी.
दुनिया में प्राइवेट मिलिटरी कांट्रैक्टरों के व्यापर
का 70 प्रतिशत पर दुनिया के चार मुल्कों- अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और दक्षिण अफ्रीका का कब्जा है, रूस भी इस व्यापार
का अहम किरदार है.
भाड़े के सैनिक सप्लाई करने वाली कंपनियों में अमेरिका
की अकेडमी प्रमुख है, जिसका शुरुआती नाम- ब्लैकवॉटर था. इराक
युद्ध के दौरान बगदाद में नागरिकों की हत्या
का आरोप इससे कंपनी पर लगा. हथियारों की स्मगलिंग जैसे गंभीर आरोप भी इस कंपनी पर लगते
रहे हैं. इस कंपनी का 90 प्रतिशत मुनाफा अमेरिकी सरकार के ठेकों से आता है. 1996 में
बनी इस कंपनी को 2006 आते-आते अमेरिका की सरकार
अपने बजट में से 600 मिलियन डॉलर देने लगी थी.
अमेरिका ही आधुनिक
सैन्य ठेका उद्योग का जनक है. अमेरिका के “आतंक के विरुद्ध
युद्ध” (war
on terror) के दौरान ही सैन्य ठेका उद्योग की बुनियाद अमेरिका ने रखी.
इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका ने अपनी सेना में भारी कटौती की.
अमेरिका में यह उद्योग कितना बड़ा है, इसका अंदाज एक सैन्य ठेका कंपनी के लिए काम करने वाले अमेरिकी फौज के रिटायर
जनरल के बयान से समझा जा सकता है. मिलिटरी प्रोफेशनल रिसोर्सेस नामक कंपनी में उपाध्यक्ष
पद पर काम करने वाले जनरल हैरी ई.सोएस्टर ने एक बार कहा था- “हमारे पास यहाँ प्रति
वर्ग फुट में पेंटागन के मुक़ाबले ज्यादा जनरल है.” पेंटागन यानि अमेरिकी रक्षा मंत्रालय !
लब्बोलुआब यह कि दुनिया भर में निजी सैन्य सेवाओं का कारोबार
बहुत बड़ा है,इसका बाज़ार भी बहुत बड़ा है, जो
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सैन्य टकरावों में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति के जरिये
फलता-फूलता रहता है.
भारत में चार साल के सैनिक, जिनको अग्निवीर नाम दिया जा रहा है, क्या दुनिया के
इसी फलते-फूलते निजी सैन्य ठेकेदारों के व्यापार के लिए तैयार किए जा रहे हैं ? क्या ऐसा होने जा रहा है कि चार साल भारतीय सेना, इनको
ट्रेनिंग देगी और फिर दुनिया भर में भाड़े के सैनिकों की तरह,
इनकी सेवाएँ किराये पर ली जाएंगी ? क्या भारत में भी सरकार के
चहेते उद्योगपतियों में से कोई निजी सैन्य ठेकेदारी के व्यापार में निवेश करने की तैयारी
कर रहा है ? जैसा कि अमेरिका के उदाहरण से भी स्पष्ट है कि वहाँ
फौज की संख्या में कटौती करके निजी सैन्य व्यापार को फलने-फूलने का अवसर दिया गया.
क्या वैसे ही कुछ भारत में भी होने जा रहा है ? यहाँ भी सेना
के आर्थिक बोझ को कम करने का तर्क, चार साल के सैनिक बनाने के
पीछे एक बड़ा तर्क है. भारत की अशांत सीमाओं पर तो हमेशा ही सैन्य टकराव का माहौल रहता
है, कई बार इससे चुनावी लाभ की फसल भी काट ली जाती है. तो इन
अशांत सीमाओं की रखवाली का जिम्मा चरणबद्ध तरीके से निजी सैन्य ठेकेदारों द्वारा सप्लाई
किए जाने वाले मर्सनरी यानि भाड़े के सैनिकों के हवाले कर दिया जाएगा ?
-इन्द्रेश मैखुरी
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मनमानी कर रही सरकार
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