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अगर तब ऐसा होता तो !

 







यह 1995 की बात है. मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उत्तरकाशी में बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग के आंदोलन को लेकर श्रीनगर(गढ़वाल) के श्रीयंत्र टापू पर आंदोलन चलाया जा रहा था. 10 नवंबर 1995 को इस श्रीयंत्र टापू पर पुलिस की गोली से दो आंदोलनकारियों- यशोधर बैंजवाल और राजेश रावत की शहादत हुई. 


इस घटना की सूचना उत्तरकाशी में मिलने पर महाविद्यालय से हमने बड़ा जुलूस निकाला. उसी दौरान उत्तरकाशी में एक सरकारी गढ़वाल महोत्सव आयोजित किया जा रहा था. इस महोत्सव का पांडल, उत्तरकाशी के रामलीला मैदान में लगा हुआ था.उस जमाने में कहा गया कि वह पाँच लाख का पंडाल है. 


 पूरे शहर का चक्कर लगा कर जुलूस रामलीला मैदान के उस पांडल में पहुंचा. पुलिस भी आ गयी. पुलिस से हमारी बात हो ही रही थी कि तब तक किसी ने उस पांडाल को आग लगा दी. आग ऐसे लगाई गई कि कुछ देर तक सिर्फ धुआं उठता दिखा, यह नहीं पता चला कि आग कहां लगी है और फिर अचानक पांडाल धू-धू कर जलने लगा. वहाँ पर फायर ब्रिगेड की दो गाड़ियां थी पर उनमें पानी ही नहीं था ! 


आग लगने से बौखलाई पुलिस ने ताबड़तोड़ लाठी चलाना शुरू किया. कुछ पुलिस के लोगों ने आग बुझाने की कोशिश भी शुरू की. उस समय के उत्तरकाशी के थानाध्यक्ष अशोक कुमार (उनका भी यही नाम था, जो उत्तराखंड के वर्तमान डीजीपी का है) भी आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे. मैं भी उनके बगल में बैठ कर, वहाँ पड़ी रेत को पांडाल के पर्दे पर उछाल-उछाल कर आग बुझाने की कोशिश करने लगा. लाठीचार्ज और आग बुझाने की ये कोशिशें साथ-साथ चल रही थी. इस बीच लाठीचार्ज के जवाब में भीड़ ने पथराव कर दिया. थानाध्यक्ष के बगल में बैठ कर आग बुझाते समय एक ईंट का टुकड़ा, सनसनाता हुआ मेरे कान के बगल से गुजरा. मैं समझ गया कि अब यहाँ बैठ कर आग बुझाने में चोटिल होने की आशंका है तो मैं उस मैदान से बाहर आ गया. 


अगले दिन अखबार में खबर आई कि मेरे और छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष के खिलाफ पांडाल को आग लगाने का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है. मैं उत्तरकाशी की तत्कालीन पुलिस अधीक्षक साधना श्रीवास्तव से जाकर मिला. मैंने उनसे कहा कि मैं तो आग बुझा रहा था. उन्होंने कहा-हम जानते हैं पर आप भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे (यू वर लीडिंग द मॉब). मैंने उनसे कहा कि मैं तो बीए प्रथम वर्ष का छात्र हूं और जिस कॉलेज में पढ़ता हूं, वो पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज है तो मैं पोस्ट ग्रेजुएट वालों का नेतृत्व कैसे कर सकता हूं. उन्होंने मेरी एक न सुनी और मुझ पर वह मुकदमा तकरीबन पाँच बरस से भी अधिक चला. आंदोलनकारी वकीलों-दिवंगत लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल, जयप्रकाश नौटियाल, मदनमोहन बिजल्वाण की प्रभावी एवं निशुल्क पैरवी से मैं उस मुकदमें से मुक्त हो सका. 


वर्तमान परिदृश्य में जब आरोपी मात्र होने से घरों पर बुलडोजर चलाये जा रहे हैं, तब सोचता हूं कि यदि उस समय न्याय की यह बुलडोजर प्रणाली अस्तित्व में होती तो क्या होता ? मेरे घर पर तो दो बार बुलडोजर चल चुका होता क्यूंकि मुझ पर उत्तराखंड आंदोलन के दो मुकदमें चले. ऐसा ही उन सैकड़ों आंदोलनकारियों के साथ भी हुआ होता,जो आज आंदोलनकारियों के चिन्हिकरण के अलावा कोई दूसरी बात नहीं कहते और उनके साथ भी जो आंदोलनकारी होने की एवज में नौकरी या पेंशन पा गए हैं. 


अब यह मत कहिएगा कि हम तो आंदोलनकारी थे,हमारे साथ ऐसा क्यूँ होता ! जब मुझ पर आग लगाने का मुकदमा दर्ज हुआ तो उनकी नजर में तो मैं कोई सम्मानित आंदोलनकारी नहीं, उपद्रवी ही था ! वैसे भी 1984 में भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लखनऊ की एक सभा में अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को अलगाववादी मांग करार दे चुके थे. संघ तो उत्तराखंड की मांग को इस इलाके को चीन में मिला देने का कम्युनिस्टों का षड्यंत्र कहता ही था. 


लेकिन उस जमाने में बुलडोजर से न्याय नहीं होता था, इसलिए न्यायिक प्रक्रिया में हम आगजनी की झूठी तोहमत से बरी हो पाये और यह याद रखिए कि वह न्यायिक प्रक्रिया भी काफी हद तक सजा जैसी ही होती है. लेकिन वहाँ फिर भी गुण-दोष, गवाह-सबूत आदि के आधार पर फैसला होता है. इस बुलडोजर न्याय के राज में तो आरोप लगा देने भर से ही आदमी दोषी भी मान लिया जा रहा है और उसे सजा भी पुलिस ही दे रही है. लेकिन न्याय और न्यायिक प्रक्रिया को ध्वंस करने वाला यह बुलडोजर सिर्फ एक धर्म विशेष के लोगों पर ही चल रहा है. किसानों को कुचलने वाले टेनीपुत्र या फिर पिछले महीने अयोध्या में मस्जिद में मांस फेंक कर दंगा भड़काने वालों के खिलाफ बुलडोजर न्याय के पक्षधरों को साँप सूंघ जा रहा है. 








तर्क है कि उपद्रव करने वालों से कड़ाई से निपटा जा रहा है. कड़ाई से नहीं गुंडई से निपटा जा रहा है और वह भी धार्मिक पूर्वाग्रह के आधार पर. जिस राज्य के पास पूरा कानून का तंत्र और न्याय प्रणाली है, यदि वह कानूनी तरीके से चलने के बजाय सिर्फ सनसनीखेज तरीके से चलना चाहता है तो इससे स्पष्ट है कि उसका खुद कानून और उसकी प्रक्रिया पर कोई भरोसा नहीं है. जब स्वयं राज्य का कानून और उसकी प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है तो दूसरों से उसके अनुपालन की अपेक्षा कैसे कर सकता है ? उपद्रव के जवाब में यह बुलडोजर चालन कोई न्याय सम्मत, कानून सम्मत बात नहीं बल्कि सरकारी उपद्रव है और सरकार ही उपद्रव करे, यह संविधान और लोकतन्त्र वाले देश में तो कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता. 


-इन्द्रेश मैखुरी 


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