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छज्जुराम दिनमणि की कथा सुनी है, मिस्टर पांडेय ?

 






छज्जुराम दिनमणि है, मोहन थपलियाल की कहानी का शीर्षक और मुख्य पात्र भी. मोहन थपलियाल वही जो अधेड़ अवस्था में आईटीबीपी की नौकरी छोड़ कर जेएनयू में जर्मन पढ़ने गए. फिर हिन्दी जगत ने मोहन थपलियाल जी के मार्फत जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त को पढ़ा. यह अलग बात है कि थपलियाल जी कहते हैं कि सही उच्चारण ब्रेष्ट है. खैर ..... तो वही मोहन थपलियाल गज़ब के कहानीकार हैं. उनके कथाओं के पात्र सामान्य, साधारण हैं पर कहानियां, उनकी साधारण नहीं उच्च कोटी की है. कथा की भावभूमि, कथानक और कथा का शिल्प सब बेहद सधा हुआ और शानदार है.





साभार : काफल ट्री 




तो उन्हीं मोहन थपलियाल जी की कहानी है- छज्जुराम दिनमणि यानि सी.आर.दिनमणि, आईएएस. जहां से थपलियाल जी, सी.आर.दिनमणि, आईएएस की कहानी सुनाना शुरू करते हैं, उस वक्त सी.आर.दिनमणि, आईएएस रिटायर हो कर लखनऊ में बनाई आलीशान कोठी में रहने आया है. हालांकि औपचारिक रूप से रिटायर होने के बाद आठ साल, वह दो अर्द्धसरकारी संस्थानों में बतौर चेयरमैन या निदेशक और रह आया है. उत्तराखंड में देखें तो यह तमाम नौकरशाहों की गाथा है कि वे रिटायर हो कर घर नहीं जाते बल्कि नयी नौकरी यानि पोस्ट रिटायरमेंट असाइनमेंट पर जाते हैं.


कहानी को रिटायरमेंट से शुरू करके छज्जुराम दिनमणि के पूरे जीवनचक्र और जीवनशैली में घुमाया है, थपलियाल जी ने. वे बताते हैं कि जिस दिन सी.आर.दिनमणि का आईएएस की लिस्ट में नाम आया, उसी दिन से खुद को उसने “स्टील फ्रेम ऑफ इंडियन एडमिनिसट्रेशन” का पुर्जा मान लिया था. “अपने मोहल्ले के बीए पास कर चुके साथियों के बीच उनकी दुबली-पतली काया के भीतर एक दबंग हिटलर पैदा हो गया था........... मसूरी के स्कूल से ट्रेनिंग करने के बाद सी.आर.दिनमणि सचमुच नौकरशाहों के शाह बन चुके थे.शेरों में शेर यानि बब्बर शेर.”






वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट जी के फेसबुक अकाउंट से साभार 




तो आईएएस में सलेक्शन के बाद जो यह अंदर हिटलर पैदा होता है, नौकरशाहों में शाह होने, शेरों में शेर यानि बब्बर शेर होने की प्रवृत्ति जन्मती है, यही प्रवृत्ति ऐसे करनामें करवाती है, जिससे उत्तराखंड अभी कुछ दिन पहले ही दो-चार हुआ है.


यह नौकरशाहों में शाह होने का अहम है, जो अहसास कराता है कि इस देश में अंग्रेजों के वारिस हैं,वे. इसलिए पौड़ी में अपनी पहली पोस्टिंग के दौरान जब सी.आर.दिनमणि छुट्टी में अपने शहर लखनऊ जाते हैं तो वे अपने “मित्रों-परिचितों के बीच फक्र से जिक्र करते हैं कि उनका सूट पौड़ी में वही बूथा दर्जी सीता है, जो कभी अंग्रेज़ कलेक्टरों के सूट भी सीता था.....”


नौकरी के दौरान सी.आर.दिनमणि, आईएएस के कारनामों की झलक एक पैराग्राफ में यूं मिलती है- “नौकरी में रहते उन्होंने अकूत धन कमाया था. क्लबों में जा कर काफी मौज-मस्ती और गुलछर्रे उड़ाए थे. बहुत सारे ऐसे लोगों के काम भी बनाए थे,जिनकी पहचान बाहर की दुनिया में फ़्रौडियों के रूप में थी. कागज पर अपनी एक चिड़िया बिठाने भर से लाखों का वारा-न्यारा किया था. कुछ पसंदीदा और ईमानदार लोगों के साफ-सुथरे काम भी निपटाए थे. अपने को बहुत घाघ समझने वाले कई लोगों को बड़ी सफाई के साथ टांपा भी दिया था. बेशकीमती सौगातों को सहेजने-बटोरने के मामले में अपनी पत्नी शकुन को भी उन्होंने काफी होशियार बनाया था. नौकरी की व्यस्तता में सैकड़ों लोग सी.आर.दिनमणि के आगे-पीछे चक्कर लगाया करते थे और कई लोगों को सी.आर.दिनमणि जानबूझकर चक्कर लगाने के लिए मजबूर कर देते थे. दफ्तर के बाद भी गहमागहमी बनी रहती. कभी किसी स्कूल के वार्षिक समारोह में बतौर मुख्य अतिथि भाग लेना होता था तो कभी किसी सभा या संगोष्ठी में अध्यक्ष का पद भार संभालना होता था. कभी किसी राष्ट्रीय पर्व, संगीत समारोह या नाटक समारोह के मौके पर फीता काट कर उसका उद्घाटन भी करना पड़ता था और कहीं किसी योजना या विकास से संबंधित किसी मीटिंग में पहले से तैयारशुदा कीनोट एड्रैस भी पढ़ देना होता था.” यह उस बिरादरी का रोजनामचा है, जो “नौकरशाहों में शाह” है और इस रोजनामचे में आप सी.आर.दिनमणि, आईएएस की जगह मिस्टर पांडेय, आईएएस भी लिख दें तो रोजनामचा और चाल-चरित्र-चेहरा हूबहू वही रहेगा !


सरकारी योजनाओं के बारे में सी.आर.दिनमणि, आईएएस की राय बड़ी रोचक है. “सरकारी कामकाज के दौरान उन्होंने खुद भी यह अनुभव किया था कि अधिकांश योजनाएं अमूर्त ढंग से कागज पर सरकती हैं.”


सी.आर.दिनमणि, आईएएस की आय के स्रोतों पर कहानी बड़ी रोचक निगाह डालती है. रिटायरमेंट के बाद एक बार सी.आर.दिनमणि की गाड़ी रास्ते में खराब होने पर,वे एक रिक्शे में बैठ कर घर आए. रास्ते में रिक्शेवाले ने कहा, “बाबूजी, यह जो आप खड़ी इमारतें देख रहे हैं ना, ये सब हम गरीबों का खून खड़ा है.” सी.आर.दिनमणि इस वाक्य से भयाक्रांत है. वह भयभीत है कि कहीं गरीब अपने “खड़े खून” को वसूल करने ना आ जाएँ. वह इस बात को स्वीकार भी नहीं करता कि यह “गरीबों का खून खड़ा है !” वे उन “तमाम ठेकेदार,व्यापारियों और एजेंसियों के आदमियों को याद करते हैं जिन्होंने बतौर घूस, कमीशन या बच्चों की मिठाई के नाम पर उन्हें जम कर पैसा दिया था. यह सुदर्शन बंगला उसी पैसे की बदौलत खड़ा था.”


सी.आर.दिनमणि, आईएएस की यह कथा उसके साहबी काल के बीत जाने के बाद की गाथा है, जहां वह नितांत अकेला है. वान गौग की पीली कुर्सी वाली पेंटिंग को देख कर अपने अकेलेपन पर आँसू बहा रहा है. उससे बात करने वाला कोई नहीं है. वे मित्र अब उसके धोरे नहीं बैठते जो उसे बौद्धिक मानते थे, न गोष्ठियों में बुलाते हैं. प्रकाशक उसकी किताब छापने से मुकर चुका है. ऐसा सब इसलिए है क्यूंकि सी.आर.दिनमणि, आईएएस की जगह लेने कोई और आईएएस आ चुका है. अब वह इनको झांसे देगा और वे, उसे चने के झाड़ पर चढ़ाएँगे !


सी.आर.दिनमणि, आईएएस का एकाकीपन इस कदर है कि रात में सपने में भी वह अपने स्टेनो को डिक्टेशन दे रहा है. अब सी.आर.दिनमणि के पास बात करने के लिए एक ही आदमी है, उनके भीतर बैठा- छज्जुराम, जिसे वे पुचकारते, डपटते, प्यार करते हैं.


यह एकाकीपन इस कदर सी.आर.दिनमणि को घेरे हुए है कि इस से मुक्ति पाने के लिए वे अपनी धोबिन के पास कुत्ते का पिल्ला लेने पहुँचते हैं. धोबिन कहती है कि यह तो देसी है, आवारा, लंडेरु.


दार्शनिक अंदाज में सी.आर.दिनमणि जवाब देते हैं “देसी-विलायती कुछ नहीं होता रामप्यारी. जानवर सब वफादार होते हैं, जानवर को क्या पता कि वह विलायत का है या बलिया बस्ती का.”


“नौकरशाहों के शाह” होने के दर्प में चूर मिस्टर पांडेय जैसे लोगों को वक्त रहते मनुष्य को मनुष्य समझना शुरू कर देना चाहिए, वरना सी.आर.दिनमणि वाली अवस्था तो आनी ही है. “नौकरशाहों के शाह” होने का अहंकार की समयावधि है. वह अवधि समाप्त तो नौकरी समाप्त और शाहपना उसके साथ ही काफ़ूर हो जाता है. मनुष्यता को इस शाहपने के जिल्द से ढक लें तो शाहपने के जाने के बाद मनुष्य होना बहुत मुश्किल हो जाता है, मिस्टर पांडेय !


-इन्द्रेश मैखुरी  

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