कैलाश भट्ट पहाड़ी गोल टोपी, मिरजई व अन्य पहाड़ी
परिधानों को लेकर जुनूनी स्तर पर काम कर रहे थे. कल अचानक पता चला कि वे दुनिया से
चले गए हैं. मैं पार्टी की बैठक से हल्द्वानी से लौट रहा था कि यह हृदय विदारक खबर
मिली. बाद में एक साथी ने उनके देहावसान का जो कारण बताया, अगर वह सही है
तो उसे सुन कर तो बेहद कोफ़्त भी हुई और गुस्सा भी आया. पर कोफ़्त और गुस्सा व्यक्ति
को लौटा तो नहीं सकता. सभी लोगों से बस इतना निवेदन है कि अपने स्वास्थ्य, खान-पान के प्रति
लापरवाह न बने, सजग रहें.
एक छरहरा, चुस्त-दुरुस्त सा व्यक्ति, जो अपने समाज के
लिए योगदान करने को लालायित हो, इस तरह से चला जाये, यह बेहद कष्टकारी
है.
बीते दिसंबर में दून विश्वविद्यालय
में डॉ.ईशान पुरोहित के कविता संग्रह के विमोचन कार्यक्रम में कैलाश भट्ट को आखिरी
बार देखा,सुना और बातचीत भी हुई थी. नहीं मालूम था कि यह उनके साथ अंतिम मुलाक़ात सिद्ध
होगी. उस कार्यक्रम के मंच से कैलाश भट्ट ने अपने टोपी निर्माण की यात्रा का विस्तृत
ब्यौरा दिया था. टोपी और उत्तराखंडी परिधानों के प्रोत्साहन के जुनून में वे रुड़की
में सरकारी नौकरी छोड़ कर गोपेश्वर में टेलरिंग की दुकान चलाने लगे थे. यह अलग बात है
कि कैलाश भट्ट की याद, उनके रहते भी, किसी
के जेहन में एक टेलर मास्टर के तौर पर नहीं आई होगी. यह उनके हुनर और जुनून का कमाल
था कि वे पहाड़ी टोपी और पहाड़ी परिधान के निर्माता कलाकार के तौर पर पहचाने गए. हालांकि
यह भी सत्य है कि हर जुनून अपनी कीमत मांगता है. दून विश्वविद्यालय के अपने वक्तव्य
में कैलाश भट्ट ने इस ओर इंगित किया था कि उनका हुनर उन्हें पहचान तो दिला रहा है, ख्याति भी दिला रहा है पर आर्थिक मोर्चा कमजोर है. उन्हें याद करने वाले तमाम
लोगों को यह सोचना होगा कि उनके न रहने के बाद उनके परिजन, किसी
तरह के संकट में न रहें.
कैलाश भट्ट का मेरे साथ भी बेहद आत्मीय रिश्ता था. इस
आत्मीयता में उन्हीं का योगदान अधिक था. वे जितने “मयाळु” प्रकृति
के व्यक्ति थे, उसके चलते किसी के साथ भी उनका आत्मीय रिश्ता बेहद
स्वाभाविक था. जिस तरह उनकी टोपी बड़े-बड़े सिरों पर दिखाई देती थी, मैं अक्सर ही उनसे मज़ाक कहते थे कि वे किसी को भी टोपी पहना सकते थे.
दून विश्वविद्यालय में हुई अंतिम मुलाक़ात में बेहद आत्मीय
नाराजगी के साथ बोले- हद हो गयी, भाई साहब,आपके
पास मेरी टोपी नहीं है. मैंने कहा कि जिस दिन मैं उनकी देहरादून स्थित दुकान पर आया
था, उस दिन मेरे पास पैसे नहीं थे, जिस
दिन पैसे लेकर गया, उस दिन वे मिले नहीं. (प्रसंगवश यह बताना
समीचीन होगा कि कैलाश भट्ट ने देहरादून में भी पहाड़ी गोल टोपी व अन्य पहाड़ी परिधानों
की दुकान, दर्शनलाल चौक के पास शुरू की थी.) वे उसी आत्मीय नाराजगी
के साथ बोले- अब आपसे भी पैसे लेने हैं तो हद है हमको. फिर उन्होंने टोपी निकाल कर
मुझे पहनाई. बोले- टोपी खराब हो जाएगी तो मुझे फोन करना. आप जहां रहोगे, वहां आपके पास नयी टोपी पहुँच जाएगी.
टोपी तो मेरे पास है, अपनी पूरी चमक
के साथ है. पर अफसोस कि टोपी का निर्माता नहीं रहा. अलविदा कैलाश भाई.
-इन्द्रेश मैखुरी
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