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जलवायु परिवर्तन की भारी आर्थिक कीमत चुकानी होगी

 






जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिए ही चिंता का सबब है. लेकिन अब एक अध्ययन यह बता रहा है कि भारत को जलवायु परिवर्तन की भारी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ेगी.






ब्रिटेन आधारित थिंक टैंक- ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने अपनी रिपोर्ट में ऐसा दावा किया है. उक्त रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के चलते तापमान में 1 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है. इस एक डिग्री की वृद्धि की मार भारत में दिखाई दे रही है. अत्याधिक गर्म हवाएं, अतिवृष्टि, भयानक बाढ़ व  तूफान तथा ऊपर उठता समुद्र तल, ग्लोबल वार्मिंग के वो परिणाम हैं, जिनकी मार लोगों के जीवन, आजीविका और परिसंपत्तियों पर पड़ रही है.


बहुत साल पहले एक अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वितीय ने अपने देश के कार्बन उत्सर्जन को कमतर सिद्ध करने के लिए कहा था कि भारत की गायें जो गोबर करती हैं,उससे अमेरिका के मुक़ाबले ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है. लेकिन ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया की 17.8 प्रतिशत आबादी का घर होने के बावजूद समग्र उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी 3.2 प्रतिशत है. रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले सौ साल में 0.62 डिग्री सेंटीग्रेड की तापमान वृद्धि हुई है, जो वैश्विक औसत से कम है. परंतु असर तो फिर भी महसूस किए जा रहे हैं. 1985 से 2009 के बीच पश्चिम और दक्षिण भारत ने उसके पहले के 25 वर्षों के मुक़ाबले 50 प्रतिशत अधिक गर्म लहर की घटनायें झेली. 2013 में 1500 और 2015 में 2000 से अधिक लोगों की मौत गर्म लहर से हुई.


2013 में उत्तराखंड में आई आपदा का उल्लेख करते हुए रिपोर्ट कहती है कि शुरुआती मानसूनी बारिश ने बर्फ की परत(स्नो कवर) को समय से पहले पिघला दिया और इस बारिश और बर्फ पिघलने की साझा घटना ने जलधाराओं को लबालब भर दिया और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट हुआ. इसके चलते मलबे के बहने,बाढ़ और भूस्खलन से 5800 से अधिक लोग मारे गए तथा घरों और ढांचागत संरचनाओं को भारी नुक्सान हुआ.


रिपोर्ट के अनुसार जिस गति से तापमान बढ़ रहा है,उसके चलते यह होगा कि 2064 तक साल में दो बार गर्म लहर चलेगी या फिर उच्च तापमान वाले 12 से 18 अतिरिक्त दिन होंगे. वर्ष 2071 से 2099 के बीच दिल्ली में सर्वाधिक गर्म महीनों में तापमान इतना बढ़ जाएगा कि दिन के काम के घंटों में वर्तमान की तुलना में 25 प्रतिशत की कमी हो जाएगी क्यूंकि उतनी गर्मी में काम करना लोगों के लिए असुरक्षित होगा. सर्वाधिक गर्मी की मार मध्य और उत्तर पश्चिम भारत पर पड़ेगी,लेकिन देश के दक्षिण और तटीय इलाकों को भी भीषण गर्मी झेलनी होगी.


बारिश में निरंतर गिरावट होगी और बर्फबारी व ग्लेशियरों का क्षरण होगा. इस शताब्दि की शुरुआत की तुलना में मध्य शताब्दि तक सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के जलस्तर में क्रमशः 8.4 प्रतिशत, 17.6 प्रतिशत और 19.6 प्रतिशत की कमी का अनुमान रिपोर्ट में लगाया गया है. वैश्विक समुद्र तट तो 1990 के मध्य के वर्षों की तुलना में 44 से 74 सेंटीमीटर ऊपर उठ जाएँगे. भारतीय समुद्र तटों के बारे में रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान स्तर की तुलना में 20 से 30 सेंटीमीटर ऊपर उठ जाएंगे.


इन सारे बदलावों की मार सबसे पहले समाज के सर्वाधिक कमजोर तबकों पर पड़ेगी.


रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के असर के चलते भारत में गरीबी कम करने की रफ्तार धीमी पड़ चुकी है और असमानता तेजी से बढ़ रही है. रिपोर्ट में दिये गए एक आकलन के अनुसार वर्ष 2100 तक केवल जलवायु परिवर्तन के चलते ही भारत के सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) में 2.6 प्रतिशत की गिरावट हो जाएगी. रिपोर्ट में ही दिया गया एक अन्य आकलन कहता है कि एक डिग्री सेंटीग्रेड ग्लोबल वार्मिंग के चलते हुई कृषि उत्पादकता में कमी, समुद्र तल के ऊपर उठने और स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ने की कीमत देश को जीडीपी में 3 प्रतिशत की कमी के रूप में चुकानी पड़ेगी.


रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में बाढ़ के कारण ही भारत को 3 बिलियन डॉलर का आर्थिक नुक्सान हुआ है, जो पूरे विश्व में बाढ़ से हुए नुक्सान का 10 प्रतिशत है.


इस तरह जलवायु परिवर्तन की भारी कीमत देश को चुकानी पड़ेगी. भारत में अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित बड़ा हिस्सा है. यदि उसकी आय में वृद्धि करने और उसे बेहतर जीवन स्तर देने की दिशा में आगे बढ़ाना है तो ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में जो भी करने की जरूरत है,वह किया जाना चाहिए. प्रकृति और पर्यावरण का नाश करके जो विकास का सपना पाले बैठे हैं,उनको ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की यह रिपोर्ट चेतावनी है कि पर्यावरण का नाश अंततः आर्थिक तबाही का भी सबब बनेगा.


-इन्द्रेश मैखुरी  

 

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