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श्रीयंत्र टापू गोलीकांड को याद करते हुए

 

 (नोट : यह लेख 2017 में लिखा गया था,श्रीयंत्र टापू गोलीकांड को याद करते हुए,इसे पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है)



10 नवम्बर 1995 को श्रीनगर(गढ़वाल) के श्रीयंत्र टापू पर दो आन्दोलनकारियों यशोधर बेंजवाल और राजेश रावत की बर्बरता पूर्वक हत्या करके उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनके शरीरों को अलकनंदा नदी में बहा दिया था.इस टापू पर उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर अनशन चलाया जा रहा था.इन दो आन्दोलनकारियों की हत्या के अलावा पुलिस ने यहाँ से 55 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार किया,जिनमें डा.एस.पी.सती,गढ़वाल विश्वविद्यालय के छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष,अनिल काला  शामिल थे.भाई अनिल काला अब इस दुनिया में नहीं हैं. इन आन्दोलनकारियों को पुलिस गाडी में रास्ते भर बुरे तरीके से पीटते हुए सहारनपुर जेल ले गयी.उस समय उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था और कांग्रेसी नेता मोतीलाल वोरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे.उनकी सदारत में इस दमन काण्ड को अंजाम दिया गया.यह विडम्बना है कि उत्तराखंड आन्दोलन में दमन करने या दमनकारियों को बचाने में मुलायम सिंह यादव की सपा,कांग्रेस,भाजपा सब शरीक हैं.खटीमा,मसूरी,मुज्फ्फरनगर गोलीकांड सपा ने करवाए,श्रीयंत्र टापू कांड कांग्रेस ने करवाया, मुजफ्फरनगर काण्ड के हत्यारे अनंत कुमार सिंह पर सी.बी.आई.को मुकदमा राजनाथ सिंह की भाजपा सरकार ने नहीं चलाने दिया.आज उसी कांग्रेस-भाजपा के हाथ उत्तराखंड की बेहतरी की जिम्मेदारी हम बारी-बारी सौंपते हैं.



श्रीयंत्र टापू गोलीकांड जिस समय हुआ,उससे कुछ दिन पहले ही उत्तरकाशी में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गढ़वाल महोत्सव का आयोजन शुरू हुआ.मैं उस वक्त राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय उत्तरकाशी में बी.ए.प्रथम वर्ष का छात्र था और उत्तराखंड आन्दोलन में अन्य सभी लोगों की तरह शरीक था.जब गढ़वाल महोत्सव का ऐलान हुआ तो हमारे आन्दोलनकारी अग्रजों श्रीकृष्ण भट्ट, नागेन्द्र जगूड़ी ,मदनमोहन बिजल्वाण,रमेश कुड़ियाल आदि ने इस महोत्सव का विरोध करने का ऐलान किया.विरोध के पीछे तर्क यह था कि मुजफ्फरनगर कांड जैसे जघन्य काण्ड के बाद, जबकि आन्दोलन चल रहा है,तो सरकार ऐसे उत्सव का आयोजन करके यह सिद्ध करना चाहती है कि उत्तराखंड में कोई आक्रोश नहीं है,सब सामान्य है.जिस दिन महोत्सव का उद्घाटन तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा द्वारा किया गया,दिन भर उत्तरकाशी शहर में इस महोत्सव के खिलाफ जुलूस निकला और हनुमान चौक पर सभा हुई.शाम को आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार करने का ऐलान प्रशासन और पुलिस द्वारा किया गया.परन्तु थाने में हमें पहुंचाने के बाद एस.डी.एम. आन्दोलनकारियों की जिम्मेदारी लेने से पल्ला झाड़ते हुए भाग खड़ा हुआ.उस समय के थानाध्यक्ष ने एस.डी.एम.के सम्मान में तमाम पुलिसिया गालियाँ खर्च करने के बाद आन्दोलनकारियों से निवेदन किया कि हम घर चले जाएँ,हमारे आन्दोलनकारी अग्रज अड़ गए कि जेल जायेंगे.पुलिस ने थाने में खाना खिलाया और हम वहीँ पसर गए.रात में मंच पर चल रहे कार्यक्रमों को थाने से निकल कर हमने बंद करवा दिया.



इस घटनाक्रम का एक पहलु प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी से भी जुड़ा है.नेगी जी उस समय उत्तरकाशी में सूचना विभाग में सहायक सूचना अधिकारी के तौर पर तैनात थे.आन्दोलनकारियों द्वारा महोत्सव का विरोध किये जाने पर प्रशासन के लिए उसे सफल बनाना चुनौती हो गया.इसके लिए उन्होंने नेगी जी का उपयोग करने की सोची.महेश गुप्ता डी.एम. थे.उन्होंने नेगी जी को कहा कि उनकी गीत संध्या भी गढ़वाल महोत्सव में होगी.नेगी जी चूँकि डी.एम. के अधीनस्थ कर्मचारी थे,इसलिए ना नहीं बोल सकते थे.लेकिन भावनात्मक रूप से वे उत्तराखंड आन्दोलन और आन्दोलनकारियों के साथ थे.इसलिए कार्यक्रम में शामिल भी नहीं होना चाहते थे.तो उन्होंने इसका तोड़ निकाला और छुट्टी ले कर घर चले गये.छुट्टी के बाद मेडिकल ले लिया.ऐसा करने के लिए वे प्रशासन के कोप का भाजन भी बने पर आन्दोलन के पक्ष में उन्होंने यह झेल लिया.



बहरहाल 10 नवम्बर 1995 को श्रीयंत्र टापू पर आन्दोलनकारियों के मारे जाने और दमन की सूचना पर एक तरफ आन्दोलनकारी अग्रज,उत्तरकाशी के हनुमान चौक पर इकट्ठा हुए और दूसरी तरफ राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से छात्र-छात्राओं का बड़ा जुलूस निकला.यह जुलूस पूरे उत्तरकाशी शहर का चक्कर लगा कर,रामलीला मैदान में पहुंचा.यहाँ गढ़वाल महोत्सव का पांडाल लगा हुआ था,जिसके बारे में उस जमाने में चर्चा थी कि वह दस लाख रुपये का पांडाल है.दस लाख का पांडाल,वह भी 1995 में ! सोचिये तो किसका महोत्सव हो रहा था.



जब जुलूस पांडाल के अंदर पहुंचा तो एक तरफ नारेबाजी हो रही थी और दूसरी तरफ कुछ लोगों ने पांडाल को आग लगा दी.आग लगाने वाले इतने उस्ताद थे कि थोड़ी देर तक सिर्फ धुआं ही नजर आया,पता ही नहीं चला कि आग कहाँ लगी है.जब पांडाल धू-धू कर जलने लगा,तभी दिखा कि आग तो पांडाल में लगी है.वहां फायर ब्रिगेड की दो गाड़ियाँ खड़ी थी पर पानी उनमें एक बूँद भी नहीं था.इस बीच पुलिस ने लोगों पर लाठियां भांजनी शुरू कर दी,जवाब में पथराव भी शुरू हो गया.



बाद में खबर आई कि पुलिस ने गढ़वाल महोत्सव का टेंट जलाने का मुकदमा मेरे और तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष के नाम पर दर्ज कर लिया है.पिछले दिनों भाई गजेन्द्र रौतेला जी की लाइब्रेरी में किताबें उलटते-पलटते, त्रिलोक भट्ट जी की लिखी किताब में इस घटना का जिक्र देखा तो यह घटना फिर याद आई.




वह मुकदमा और आन्दोलन का एक अन्य मुकदमा उत्तरकाशी के जिला न्यायालय में मुझ पर पांच वर्ष से अधिक समय तक चला.





लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल जो उस समय उत्तरकाशी के सबसे बड़े वकील थे,उन्होंने ये मुकदमे बरसों-बरस निशुल्क लड़े.उनकी मृत्यु के बाद उनके सहायक अधिवक्ताओं जयप्रकाश नौटियाल और मदनमोहन बिज्ल्वाण ने अदालत से मुझे व अन्य को दोषमुक्त करवाया.लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल ने न केवल हमारा मुकदमा निशुल्क लड़ा बल्कि वे वकील होते हुए मेरे जमानती भी बने.अदालत में जब जज ने इस बाबत सवाल उठाया तो उन्होंने जवाब दिया कि “ये तो अपना ही बच्चा है.” लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल जी स्वयं आन्दोलनकारी थे.वे लम्बे समय तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में रहे थे.उत्तराखंड राज्य आन्दोलन को आगे बढाने के लिए उन्होंने अन्य साथियों के साथ उत्तराखंड मुक्ति मोर्चा नाम का संगठन बनाया था.1994 में आन्दोलनकारियों के मसूरी कूच के समय वे पुलिस उत्पीड़न के शिकार हुए.वे जब उत्तरकाशी पहुंचे तो उनके पूरे सिर पर बन्दूक के बट के प्रहार के चिन्ह साफ़ देखे जा सकते थे.



यशोधर बेंजवाल और राजेश रावत और मसूरी, खटीमा, मुजफ्फरनगर काण्ड के शहीदों की शहादत के दो दशक से अधिक बीत गए हैं.यह दौर उनकी शहादत को याद करने का भी है और इस राज्य की दुर्दशा के खिलाफ लड़ने के लिए इकट्ठा होने का भी है.



-इन्द्रेश मैखुरी

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