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प्रशांत भूषण प्रकरण से उठते सवाल

 

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को उनके दो ट्वीटों के लिए उच्चतम न्यायालय के  न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति बी.आर.गवई और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने 14 अगस्त को उच्चतम न्यायालय की अवमानना का दोषी करार दिया और 20 अगस्त को उक्त अवमानना के लिए सजा सुनाई जानी है.




108 पृष्ठों के फैसले में उक्त न्यायमूर्ति गणों ने देश में चले अदालत के विभिन्न अवमानना के मुकदमों के विस्तृत उद्धरण दे कर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि कैसे अदालत को अवमानना का मुकदमा चलाने का अधिकार है.


लेकिन कुछ प्रश्न हैं,जो इस विस्तृत फैसले के बावजूद अपनी जगह खड़े हैं. जिस बाइक पर बैठने और फोटो खिंचवाने के कारण यह प्रकरण इतना तूल पकड़ा,उससे संबंधित प्रश्न इस फैसले के बावजूद अनुत्तरित हैं. अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने लिखा है कि जिस दिन का मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबड़े का बाइक वाला फोटो है,उस दिन उच्चतम न्यायालय में गर्मियों की छुट्टियाँ थी. इसलिए यह गलत बयानी है कि अदालत बंद रख कर मुख्य न्यायाधीश 50 लाख रुपये की बाइक में फोटो खिंचवा रहे हैं. उसके बाद लॉक डाउन अवधि में उच्चतम न्यायालय में कितने ऑनलाइन मामलों की सुनवाई हुई,इसका ब्यौरा भी दिया गया है. उक्त फैसले के पृष्ठ संख्या 95 पर यह दर्ज है कि 23 मार्च 2020 से लेकर 04 अगस्त 2020 के बीच विभिन्न बेंचों की 879 सिटिंग हुई और उन बेंचों ने 12748 मामले सुने. उक्त सारे तथ्य कुछ बातों को स्पष्ट करते हैं,लेकिन ट्वीट से खड़ा सवाल जो जेहन में कौंधता है,वह अनुत्तरित है.


प्रश्न यह है कि क्या वाकई उक्त बाइक किसी भाजपा नेता की थी ? इस बारे में उक्त फैसले में कुछ नहीं कहा गया है.अगर नहीं थी तो बात खत्म हो जाती है. लेकिन अगर बाइक भाजपा नेता की थी तो  क्या किसी भी न्यायाधीश का सार्वजनिक स्थल पर किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता के साथ इस तरह का मेलजोल, संबंधित न्यायाधीश की निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़े करेगा ? क्या वह न्यायपालिका की उस छवि के लिए नुकसानदेह नहीं होगा,जिस छवि को नुकसान के अंदेशे के चलते,उक्त अवमानना की कार्यवाही अमल में लायी गयी है ? इस प्रश्न का उत्तर इसलिए आवश्यक है क्यूंकि यदि वह मोटरसाइकल वाली फोटो न आती तो ट्वीट भी न होता और ना ही अवमानना का मामला होता.


दूसरा ट्वीट जिसे अदालत की अवमानना करने का दोषी करार दिया जा चुका है,उसे भी उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में उद्धारित किया है,जिसमें कहा गया है कि “When historians in future look back at the last 6 years to see how democracy has been destroyed in India even without a formal Emergency, they will particularly mark the role of the Supreme Court in this destruction, & more particularly the role of the last 4 CJIs.” (जब इतिहासकार भविष्य में पीछे मुड़ कर देखेंगे कि कैसे पिछले 06 सालों में बिना औपचारिक आपातकाल के भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया गया,वे उच्चतम न्यायालय की भूमिका को इस विनाश में चिन्हित करेंगे,खास तौर पर पिछले 04 मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका को). इस ट्वीट के पहले अंश (जिसमें बीते छह सालों में बिना औपचारिक आपातकाल के  लोकतंत्र के नष्ट होने की बात कही गयी है),के बारे में विद्वान न्यायाधीशों ने कहा कि “हम ट्वीट के पहले हिस्से की सच्चाई या अन्यथा के मामले में नहीं जाना चाहते क्यूंकि हम इस कार्यवाही को राजनीतिक बहस के मंच में नहीं बदलना चाहते.” लेकिन बाकी अंशों के बारे में अदालत ने माना कि ये सम्पूर्ण उच्चतम न्यायालय पर हमला है.न्यायालय के अनुसार उक्त ट्वीट का शेष अंश उच्चतम न्यायालय की गरिमा और प्राधिकार को कमजोर करता है.


सवाल यह उठता है कि दो साल पहले,जनवरी 2018 में उच्चतम न्यायालय के चार सेवारत न्यायाधीशों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए थे,तब क्या वह न्यायालय की गरिमा और प्राधिकार को चुनौती नहीं था ? क्या प्रशांत भूषण का ट्वीट,उक्त चार न्यायाधीशों के सात पृष्ठों के पत्र से ज्यादा प्रभावकारी या नुकसान पहुंचाने वाला है ?  उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में अवमानना के विभिन्न फैसलों को उद्धारित किया है,जिनसे स्पष्ट है कि अतीत में भी अदालत से बाहर के लोग अदालत पर सवाल उठाते रहे हैं. लेकिन इस देश के न्यायायिक इतिहास में यह इकलौता मामला था,जहां सेवारत न्यायाधीशों द्वारा प्रेस के सामने उच्चतम न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया था और कहा था कि यदि इस संस्थान को नहीं बचाया गया तो इस देश में लोकतंत्र भी नहीं बचेगा. यदि उक्त सेवारत माननीय न्यायाधीशों के प्रेस के सामने दिये बयान और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र को सार्वजनिक करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय को किसी तरह का खतरा उत्पन्न नहीं हुआ तो प्रशांत भूषण के दो-ढाई सौ शब्दों के ट्वीट में इससे ज्यादा खतरनाक क्या  कहा गया है,जिसे न्यायपालिका के लिए भयानक अवमाननाकारी समझा गया है ?


प्रशांत भूषण के अलावा ट्विटर पर भी उच्चतम न्यायालय की अवमानना का मुकदमा चलाया गया.  अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने ट्विटर की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि वह तो केवल मध्यस्थ है और उपयोगकर्ता प्लैटफ़ार्म पर क्या पोस्ट करता है,इस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है. उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले में दर्ज है कि ट्विटर ने न्यायालय के संज्ञान लेने के तत्काल बाद प्रशांत भूषण के  उक्त दोनों ट्वीट निलंबित कर दिये. इससे यह सवाल बरबस मन में उठता है कि जब अवमाननकारी कहे जा रहे ट्वीट निलंबित हैं तो अवमानना की इस कार्यवाही की आवश्यकता ही क्यूँ है ?


प्रशांत भूषण लंबे अरसे से मानवाधिकार और भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ते रहे हैं. भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त लोगों को कानूनी रूप से न्यायालय दंडित करे,इसी के लिए वे निरंतर कोशिश करते रहे हैं. दो ट्वीटों के आधार पर उन्हें उसी न्यायपालिका की बुनियाद हिलाने वाला करार दे दिया गया !


उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अपने फैसले में कई निर्णयों को उद्धारित करते हुए लिखा कि न्यायाधीश के आचरण और न्यायपलिका की कार्यप्रणाली की वाजिब आलोचना,यदि वह अच्छी भावना और जनहित में की गयी है तो अवमानना नहीं होगी. सवाल तो यही है कि वाजिब आलोचना, भावना और जनहित तय कैसे और कौन करेगा ?


-इन्द्रेश मैखुरी        

 

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1 Comments

  1. आपने ठीक ही लिखा था आलोचना ,अवमानना नहीं है

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