विकास दुबे पकड़ा गया और मारा गया. कहानी में झोल तो
है ही कि जो खुद पकड़ा गया,वो
फरार क्यूँ हो रहा था. हालांकि एंकाउंटर ही नहीं अपराधियों को गिरफ्तारी की पुलिस की
कहानी देखिये तो वो हमेशा एक जैसी ही होती है. अपराधी सुनसान सड़क पर बस का इंतजार
कर रहा था और फिर पुलिस ने उसे “दबोच लिया”. अपराधी ने भागने की कोशिश की और एनकाउंटर
में मारा गया.
जैसे घटना-दर-घटना इस बात का कोई जवाब नहीं है कि ये सारी
कहानियाँ एक जैसी क्यूँ हैं,वैसे ही इस बात का भी कोई जवाब नहीं
है कि जिसे आप हजम न होने लायक कहानी गढ़ कर, इतनी आसानी से निपटा
देते हो,वह इतनी काबिल पुलिस फोर्स के रहते हुए छोटे-मोटे गुंडे
से इतना बड़ा दुर्दांत कैसे बना ? वह पुलिस थाने में हत्या करता
है और कोई एक पुलिस वाला उसके खिलाफ गवाही नहीं देता ! वह पच्चीस हजार का इनामी बदमाश
है,साठ से अधिक मुकदमे हैं,उस पर. लेकिन
वह आराम से अपने घर पर है और पुलिस पार्टी को एंकाउंटर में बेहद क्रूर तरीके से मार
डालता है. कैसे मुमकिन होता है ऐसा ? एक अकेला व्यक्ति तो ऐसा
नहीं कर सकता,पूरा तंत्र साथ खड़ा हो तभी मुमकिन है,ऐसा कर पाना.
विकास दुबे के एनकाउंटर में मारे जाने से दिक्कत यह है
कि वो तंत्र जो विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधियों का “विकास” करता है,वो नहीं मारा जाता. बल्कि वो तंत्र तो फिर ऐसे ही किसी नए दुर्दांत विकास का “विकास” करने के काम पर तेजी से
लग गया होगा.
एनकाउंटर में मारे जाने से परेशानी यह भी है कि एक अपराधी
को मारे जाने के इस गैरकानूनी तरीके से यदि प्रसन्न हों तो वह कानून का पालन करने वाले
तंत्र को गैरकानूनी काम करने को वैधता प्रदान करता है. कानूनी लोगों के गैरकानूनी कृत्य
को मिली वैधता का दुरुपयोग किसी भी निरीह-निरपराध को ऐसे ही निपटा डालने का लाइसेंस
भी बन सकता है,यह खतरा भी इसमें निहित है.
जब पुलिस किसी को इस तरह गढ़े गए एनकाउंटर में मार देती
है तो वह कानून पर पुलिस के अविश्वास की अभिव्यक्ति है. पुलिस को भरोसा ही नहीं होता
कि वह कानूनी तरीके से अपराधी को सजा दिला सकती है. यदि पुलिस को भी कानून पर भरोसा
नहीं है तो फिर वह अन्य लोगों से उस पर भरोसा करने को किस मुंह से कहती है ? पुलिस, अपराधी से अपने कानून के तरीके
से नहीं निपट सकती और वह,अपराधी से निपटने के लिए अपराधी वाला
ही तरीका अख़्तियार कर लेती है तो फिर वह आपराधी कैसे और ये पुलिस कैसे ?
जो कानून नहीं जानते,इस तर्क से उन्हें
भ्रमित किया जा सकता है कि कानूनी तरीके से अपराधी को सजा दिलाना संभव नहीं होता. दरअसल
अपराध के साथ सत्ता और पुलिस का जो गठजोड़ है,वो खुद नहीं चाहता
ऐसा. अन्यथा पुलिस के खून में डूबे दुबे के हाथ क्या, ज़िंदगी जेल की सलाखों के पीछे
डूब जाती.
जब तंत्र बदला लेने की गरज से किसी को जेल की
सलाखों के पीछे रखने पर उतारू होता है तो वह क्या करता है,उसका एक किस्सा सुनिए. उत्तराखंड में एक डाक्टर साहब थे. मिर्गी का पवित्र
इलाज करने का दावा था डॉक्टर साहब का. चारों तरफ मिर्गी के पवित्र इलाज की धूम थी. हर गली-कूंचे,शौचालय-मूत्रालय में उनके पर्चे-बोर्ड-होर्डिंग दिख जाते
थे,अखबार पूरे-पूरे पृष्ठ के विज्ञापन से पटे रहते थे. मिर्गी
का पवित्र इलाज क्या था- ऐलोपथिक दवाइयों को कूट कर देते थे. आदमी नींद की दवाइयाँ
खाता था और सोता था.
इस बीच में उत्तराखंड में एक बड़े लाट आए. लाट बड़े कलाकार
थे,अव्वल दर्जे के चंदेबाज . लाट ने सरकारी आवास से ही चंदा जुगाड़ कर एन.जी.ओ.
चलाना शुरु किया. क्या सरकारी,क्या गैरसरकारी जिसे भी लाट की
कृपा चाहिए होती थी, लाट के एन.जी.ओ. को चंदा देता था. लाट बकायदा पत्र भेज कर इसरार
करते थे कि इतना लाख रुपया चंदा दो . जो चंदा नहीं देते थे,कीमत
चुकाते थे.
लाट ने मिर्गी के पवित्र इलाज वालों से भी चाँद मांग लिया.
मिर्गी के पवित्र इलाज वाले वैसे तो चतुर वणिक थे पर पता नहीं कैसे एक वणिक,दूसरे वणिक की भाषा समझने से चूक गया. मिर्गी के पवित्र इलाज वालों ने लाट
को चंदा नहीं दिया. कुछ दिन बाद अखबार में मिर्गी के पवित्र इलाज वालों का पूरे पेज
का विज्ञापन छपा कि भारतीय क्रिकेट टीम को एक टूर्नामेंट जीतने पर मिर्गी के पवित्र
इलाज वालों ने एक करोड़ रुपया दिया. विज्ञापन लाट ने भी देखा होगा तो लाट की त्यौरियाँ
चढ़ गयी. इधर एक अमेरिका में रहने वाली भारतीय
महिला ने शिकायत की कि मिर्गी के पवित्र इलाज वाले तो देसी के नाम पर एलोपैथिक दवाइयों
को कूट कर दे रहे हैं. मामला लाट के दरबार में पहुंचा या लाट उसे अपने दरबार में ले
आए,जो भी हो पर मिर्गी के पवित्र इलाज वालों पर कहर टूट पड़ा.
मिर्गी के पवित्र इलाज वाले जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिये गए. लोअर कोर्ट,सेशन कोर्ट कहीं से जमानत नहीं ! सालों-साल घिसने के बाद हाई कोर्ट से जमानत
हुई पर फिर भी बाहर न आ सके ! क्यूँ ? क्यूंकि हाई कोर्ट से जमानत
होने के बाद, लाट ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर दिया. तब पता चला कि लाट को ऐसा
विशेषाधिकार होता है कि हाई कोर्ट से जमानत के बाद भी वो व्यक्ति को बाहर न निकलने
दें ! मिर्गी के पवित्र इलाज वाले तभी जेल से निकल सके,जब लाट
यहाँ से विदा हो गए.
इस कथा में लाट ने व्यक्तिगत खुन्नस के लिए अपने विशेषाधिकार
का प्रयोग किया पर अपराधियों पर नकेल कसने के लिए भी कोई लाट,मंत्री,मुख्यमंत्री अपने कानूनी विशेषाधिकारों का प्रयोग
कर सकता है. पर अपराधियों पर नकेल कसने के लिए नहीं अपराध और अपराधियों के संरक्षण
के लिए विशेषाधिकारों का उपयोग किया जाता है. अपराधी गले की फांस बन जाये तो भी उसे
निपटा कर अपराध के तंत्र की रक्षा विशेषाधिकार द्वारा की जाती है. नतीजा दूबे भले ही
डूब जाये पर अपराध का तंत्र कायम रहता है,उसका “विकास” होता रहता है.
-इन्द्रेश मैखुरी
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