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कम्युनिस्टों पर अटकी भट्ट जी की सुई !

 





आपने ऐसी घड़ी देखी है, जिसका सेल खत्म हो जाये तो उसकी सुई अटक जाती है. घड़ी के चलते समय जैसी टिक-टिक की आवाज़ होती है, वैसी ही टिक-टिक की आवाज़ भी होती रहती है. सुई आगे बढ़ने की कोशिश करती है, लेकिन थोड़ी हरकत के बाद उसी जगह ठहर जाती है.


उत्तराखंड में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट जी की बयानवीर घड़ी का भी सेल डिफ्यूज हो कर अटक गया है. रुकी हुई घड़ी की टिक-टिक की तरह, उनकी जुबान भी जब टिक-टिक करती है तो वहां से एक ही आवाज़ आती है- वामपंथी, वामपंथी !


पिछले साल जोशीमठ में जब लोग, भूधंसाव के मामले पर भट्ट जी की पार्टी की सरकार की उपेक्षा के खिलाफ बारिश, बर्फबारी और कड़ाके की ठंड के बीच सड़कों पर थे तो महेंद्र भट्ट ने आंदोलनकारियों को माओवादी करार दे दिया. उस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई तो उनकी सुई फिर आंदोलन में वामपंथियों के होने पर अटक गयी !









अभी भू कानून और मूल निवास के मसले पर प्रदेश में कुछ प्रदर्शन हुए. भट्ट जी की अटकी सुई ने फिर टिक-टिक किया और बोले- इसमें तो बड़ी तादाद में वामपंथी यूथ हैं !









प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम भाजपा के लोग वामपंथ का मर्सिया पढ़ते रहते हैं, कहते हैं कि अब कम्युनिस्ट कहीं नज़र नहीं आते, अब केवल केरल में हैं ! 











अन्य समयों में भट्ट जी और उनके बंधु-बांधव कहते हैं- कम्युनिस्ट कहीं बचे ही नहीं ! और जैसे ही कोई बड़ा आंदोलन होने लगा तो कह देंगे कि इसके पीछे कम्युनिस्ट हैं, इसमें कम्युनिस्टों का हाथ है ! दो में से एक ही बात होगी भट्ट जी कि या तो कम्युनिस्ट होंगे या नहीं होंगे ! वे कोई- हो भी नहीं और हरजा हो.....-टाइप थोड़े हैं !


भट्ट साहब, वामपंथी हाथ, वामपंथी यूथ ऐसे बोलते हैं, जैसा वामपंथी होना प्रतिबंधित हो, गोया वे कोई अदृश्य शक्ति हों !


भट्ट जी और वे बंधु गण भी जो भट्ट जी द्वारा वामपंथी कहे जाने से बड़ी रक्षात्मक मुद्रा में हैं, जान लें कि वामपंथी होना न गैरकानूनी है और ना ही कोई अपराध.


अलग उत्तराखंड राज्य बना तब ही महेंद्र भट्ट साहब भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बन पाये. अलग राज्य न बना होता तो चाहे कुछ भी हो, उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की चाहे कितनी ही दुर्गत हो जाती पर भट्ट जी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की नौबत आने लायक दुर्गत तो फिर भी नहीं होती !


और जानते हैं आज़ाद भारत में सबसे पहले अलग उत्तराखंड राज्य की मांग करने वाले व्यक्ति का नाम क्या था ?  कॉमरेड पीसी जोशी. वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रह चुके थे, स्वतंत्रता सेनानी थे, मेरठ षड्यंत्र केस और अन्य मामलों में अंग्रेजों की जेल भुगत चुके थे.


देश की आज़ादी के बाद 1952 में सबसे पहले कॉमरेड पीसी जोशी ने अलग राज्य की मांग उठाई और राज्य पुनर्गठन आयोग को इस बाबत पत्र भेजा.


इस उत्तराखंड में यदि सबसे बड़े नायक को याद करना हो तो वे हैं- चंद्र सिंह गढ़वाली. 1930 में पेशावर में निहत्थे पठान स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाने से इंकार करने वाली गढ़वाली पलटन के सिपाहियों का नेतृत्व करने वाले थे- चंद्र सिंह गढ़वाली. पेशावर विद्रोह से पहले वे आर्य समाजी हो चुके थे और पेशावर विद्रोह के लिए कालापानी की सजा भुगतते हुए वे जेलों में कम्युनिस्टों के संपर्क में आए और ज़िंदगी की आखिरी सांस तक कम्युनिस्ट रहे, मजबूती से लाल झंडा थामे रहे. जिनको कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके जीवन पर्यंत कम्युनिस्ट रहने के संदर्भ में ज्यादा जानकारी चाहिए हो तो वे, राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पढ़ सकते हैं.










देश के आज़ाद होने के आठ महीने के बाद देश का तिरंगा झंडा फहराते हुए, तत्कालीन टिहरी रियासत की कीर्तिनगर में 11 जनवरी 1948 को नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत हुई. कौन थे- नागेंद्र सकलानी और मोलू भारदारी- कम्युनिस्ट थे, बाकायदा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. नागेंद्र सकलानी को तो एक बार टिहरी राज्य प्रजामंडल से कम्युनिस्ट पार्टी का जोरदार कार्यकर्ता होने के “आरोप” में निकाला भी गया. क्यूँ गोली खाई इन दो कम्युनिस्टों ने ? टिहरी में राजशाही के खात्मे के लिए.


उस राजशाही की आज क्या स्थिति है ? उस राजपरिवार की बहू को महेंद्र भट्ट जी की पार्टी ने संसद पहुंचाया हुआ है. कॉमरेड नागेंद्र सकलानी, कॉमरेड मोलु भरदारी, श्रीदेव सुमन जैसे तमाम शहीदों के खून से जिस राजपरिवार के हाथ रंगे हुए थे, उसी नरेंद्र शाह के पुत्र मानवेंद्र शाह को भी भट्ट जी की पार्टी ने 1991 से जीवन के अंतिम दिन तक लोकसभा पहुंचाया.


यह अजब उलटबांसी है कि आज तक राजशाही को अपने कंधों पर ढोने वाले, हम कॉमरेड नागेंद्र सकलानी और कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली के वारिसों को उत्तराखंड और देश के हित का पाठ सिखाने की कोशिश कर रहे हैं.


वैसे ये कोई हैरत की बात नहीं कि जो अपने दंगाई कार्यक्रम को आंदोलन बताते हैं, उन्हें वास्तविक आंदोलनकारियों से दिक्कत होने लगती है ! इसलिए क्यूंकि दंगे और उन्माद से लोगों में फूट पड़ती है, उनका दिमाग कुंद होता है और आंदोलन से लोगों में जागृति आती है. इसलिए हम तो हैं आंदोलनकारी, हम हैं कम्युनिस्ट !  भट्ट जी को दिक्कत होती हो तो हो, हमें तो फक्र है कि हम कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली और कॉमरेड नागेंद्र सकलानी का लाल परचम, उत्तराखंड में उठाए हुए हैं.


और अंत में प्रख्यात जनकवि बाबा नागार्जुन को भी याद कर लेते हैं. हालांकि यह भट्ट जी के स्तर से ऊपर की बात है पर फिर भी इस मौके पर समीचीन है.


बाबा नागार्जुन ने लिखा :

“रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा

कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा ”  







-इन्द्रेश मैखुरी  

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