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तिलाड़ी के शहीद बहादुर रँवाल्टों की शहादत को सलाम

 








30 मई 1930 को हुए तिलाड़ी कांड को याद करते हुए कुछ साल पहले यह लेख लिखा था.अपने संसाधनों पर अधिकार के लिए लड़ते हुए शहीद बहादुर रँवाल्टों की शहादत को सलाम करते हुए,यह लेख पुनः साझा कर रहा हूँ-








30 मई उत्तराखंड के इतिहास में एक रक्तरंजित तारीख है.इसी दिन 1930 में तत्कालीन टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह ने रंवाई के तिलाड़ी के मैदान में अपना लोकल जलियांवाला बाग काण्ड रच डाला था.जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए तिलाड़ी मैदान में जमा हुए सैकड़ों लोगों को राजा की फ़ौज ने तीन तरफ से घेर लिया.चौथी तरफ यमुना नदी अपने प्रचंड वेग से बहती है.बिना किसी चेतावनी के राजा की फ़ौज ने निहत्थे लोगों पर ताबड़तोड़ गोलियां चला.कुछ गोलियों का शिकार हुए,कुछ ने बचने के लिए यमुना में छलांग लगा दी,वे नदी की तेज धारा में बह गए.वनों पर अपने नैसर्गिक अधिकारों का दावा करने वालों को सबक सिखाने के लिए टिहरी के राजा नरेंद्र शाह ने अपने दीवान चक्रधर जुयाल के मार्फत यह लोमहर्षक हत्याकांड रचा.राजशाही के इस क्रूर दमन के कारण सैकड़ों शहीद हुए.


कामरेड विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास “यमुना के बागी बेटे” इस घटना का वृहद औपन्यासिक विवरण है. “ओड़ाथली के डांडे” को नरेन्द्रनगर के रूप में बसाने के लिए, अन्य लोगों की तरह ही रवांई के लोगों को भी कैसे भूखे-प्यासे रह कर बेगार करने के वृतांत से शुरू हो कर,तिलाडी काण्ड तक यह उपन्यास राजशाही के क्रूर काल की एक तरह की रनिंग कमेंट्री यानि आँखों देखा विवरण जैसा है.स्वयं विद्यासागर जी ने लिखा कि इस उपन्यास के लिए सामग्री जुटाने और कथा को उपन्यास के रूप में ढालने में उन्हें 28 साल से अधिक लगे.


आज 92  साल बाद जब हम उस तिलाड़ी काण्ड को याद कर रहे हैं तो देख रहे हैं कि जंगल,जमीन,पानी जैसे संसाधनों तो आज भी वैसे सरकारी चंगुल में हैं और सरकारों लोगों का उनपर अधिकार कायम करने के लिए देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेच रही हैं.तिलाड़ी में हमारे बहादुर पुरखों ने जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए सैकड़ों की तादाद में शहादत दी.देश आजाद हुआ,राजशाही ख़त्म हुई पर जंगल,जमीन,पानी पर लोगों का अधिकार बहाल नहीं हुआ.हालांकि राजशाही अपने आप ख़त्म नहीं हुई.तिलाड़ी की शहादत से आगे चलते हुए,1944 में श्रीदेव सुमन शहीद हुए और देश की आजादी के आठ महीने के बाद 11 जनवरी 1948 को कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत के बाद ही राजशाही का खात्मा हो सका.यह अलग बात है कि लोकतंत्र स्थापित होने के बाद भी सत्ताधीशों का इन राजाओं के प्रति असीम प्रेम कायम रहा.इसलिए तिलाड़ी के शहीदों के खून से रंगे,श्रीदेव सुमन,नागेन्द्र सकलानी के खून से सने हाथों के साथ ही, टिहरी का यह राजपरिवार पहली लोकसभा से आज तक (बीच के थोड़े अंतराल को छोड़ कर) निरंतर संसद पहुँचता रहा है.कांग्रेस और भाजपा दोनों ने रक्तरंजित इतिहास वाले इस राजपरिवार को लोकसभा पहुंचाने में अपनी वर्गीय पक्षधरता का स्पष्ट प्रदर्शन किया.


राजशाही शहीदों के खून के वेग में बह गयी.पर हमारे लोकतंत्र के खेवनहारों ने राजाओं के गुण बखूबी आत्मसात किये.उन्हें जंगल,जमीन,पानी के लिए लोगों का खून बहाना मंजूर है पर संसाधनों पर जनता का अधिकार मंजूर नहीं है.तिलाडी के हमारे बहादुर पुरखों से चली आ रही यह लड़ाई,आज भी जारी है,हत्यारी राजशाही के गुणसूत्र वाले वर्तमान हुक्मरानों से.


- इन्द्रेश मैखुरी

 

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