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फैसला है या दो नावों की सवारी, मी लॉर्ड !

 







गढ़वाली में एक कहावत है “दिदा भी भलो अर बौ भी भली” यानि भाई भी सही और भाभी भी सही ! यह एक तरह का तंज़ है, जो ऐसे व्यक्ति पर किया जाता है, जो दो विरोधाभासी स्थितियों में दोनों को सही बताने या दोनों के पक्ष में खड़े दिखना चाहता है.


उत्तराखंड में निर्माणाधीन चार धाम सड़क परियोजना को लेकर 14 दिसंबर 2021 को आए उच्चतम न्यायालय के फैसले को देख कर भी ऐसा ही लगता है कि यह दो विरोधाभासी स्थितियों या दो ध्रुवों पर एक साथ खड़े होने की कोशिश है. उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ का यह फैसला है तथा खंडपीठ की ओर से न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़ ने यह 83 पृष्ठों का फैसला लिखा है. 









फैसला सड़क की चौड़ाई बढ़ाने की इजाजत भी देता है, जैसा कि सरकार चाहती है और फैसला सड़क निर्माण में पर्यावरण को होने वाले नुकसान की बात भी स्वीकारता है, जो कि सड़क की चौड़ाई बढ़ाए जाने के विरोधियों का मुख्य तर्क था.


फैसले में यह स्वीकार किया गया है कि मूल रूप से यह परियोजना, 2016 में  उत्तराखंड में स्थित चार धाम तक सड़क मार्ग की कनैक्टिविटी बेहतर बनाने के लिए घोषित की गयी थी. लेकिन इसके बावजूद केन्द्रीय रक्षा मंत्रालय द्वारा इसमें सीमाओं को जाने वाली सड़कों का हवाला देते हुए इन्हें बेरोकटोक चौड़ा करने के लिए 2020 में दाखिल प्रार्थनापत्र में फैसले को कोई छुपा हुआ मंतव्य नजर नहीं आता.


केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा सड़कों की चौड़ाई के संबंध में 2012 में एक सर्कुलर जारी किया गया. उसके बाद 2018 में हिमालयी सड़कों की चौड़ाई के संबंध में एक अन्य सर्कुलर केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय ने जारी किया, जिसमें कहा गया कि हिमालयी क्षेत्रों में सड़कों को मैदानी इलाकों की तरह चौड़ा करके डबल लेन बनाने में ढेर सारी दिक्कतें हैं, इसलिए मैदानी पैमाने से हिमालयी सड़कों को डबल लेन नहीं किया जा सकता.


चार धाम परियोजना के संदर्भ में प्रो.रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में बनी उच्च अधिकार प्राप्त समिति ( एचपीसी) में इसी बात को लेकर मतभिन्नता थी. कमेटी में सरकारी सदस्य (जिनका कमेटी में बहुमत था) वे 2012 के सर्कुलर के अनुसार ही सड़कों को तकरीबन साढ़े दस मीटर चौड़ा किए जाने के पक्षधर थे. जबकि एचपीसी के अध्यक्ष समेत पाँच सदस्यों का यह मत था कि चूंकि यह सड़क हिमालयी क्षेत्र में बन रही है, इसलिए इस पर 2018 का सर्कुलर लागू होता है.इसलिए यह सड़क सात मीटर से अधिक चौड़ी नहीं की जा सकती.  यह भी गौरतलब है कि केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा एचपीसी के सामने 2018 का सर्कुलर रखा ही नहीं गया.


सितंबर 2020 में उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति फली एस.नारीमन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने यह निर्णय दिया कि इस सड़क पर केंद्रीय सड़क परिवहन  मंत्रालय का 2018 का सर्कुलर लागू होता है.


उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की काट के तौर पर ही रक्षा मंत्रालय की ओर से न्यायालय में रक्षा जरूरतों का हवाला देते हुए प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया. साथ ही 2020 में केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा एक नया सर्कुलर जारी किया गया, जिसमें देश की सीमाओं की ओर जाने वाली रणनीतिक सड़कों को 2018 के सर्कुलर से मुक्त रखा गया है.


फैसले में कहा गया है कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करते हुए भी न्यायालय, देश की सेनाओं की ढांचागत जरूरतों के मामले में कोई अन्य कल्पना ( second guess) नहीं कर सकती. सेना की जरूरतों के मामले में अन्य तर्कों को खारिज करने वाला फैसला लिखते समय, कहीं भी यह प्रश्न नहीं उठाया जाता कि इतनी बड़ी परियोजना शुरू करने से पहले सेना की जरूरतों के बारे में क्यूँ नहीं सोचा गया ? हैरतंगेज़ बात यह है कि उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार के सबसे बड़े वकील यानि महा अधिवक्ता यह दलील देते हैं कि 2012 और 2018 के केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय के सर्कुलर रणनीतिक सीमा सड़कों (strategic border roads ) के मसले को संबोधित नहीं करते हैं और न्यायालय भी इस तर्क को आराम से स्वीकार कर लेता है. जबकि प्रश्न तो यह पूछा ही जाना चाहिए था कि जब 2012 और 2018 में केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय सर्कुलर जारी कर रहा था तो तब उसे देश की सीमाओं की ओर जाने वाली सड़कें क्यूं याद नहीं आई. उच्चतम न्यायालय के फैसले को पढ़ते हुए यह हैरत होती है कि महाधिवक्ता दलील दे रहे हैं कि सीमा की ओर जानी वाली सड़कों के बारे में 2012 और 2018 के सर्कुलर में कुछ नहीं है और न्यायालय, देश की सीमाओं की रक्षा का हवाला देते हुए आराम से इस तर्क को स्वीकार कर लेता है. हल्का सा प्रतिप्रश्न तक नहीं करता कि पूरे देश की सड़कों की चौड़ाई के संबंध में फैसला करते हुए केंद्र सरकार को सीमा की ओर जाने वाली सड़कों का ख्याल क्यूं नहीं आया ?


 

फैसले में हाल ही में दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत के उस बयान का जिक्र है, जो उन्होंने एक टीवी चैनल को दिया था.








 उक्त बयान में जनरल रावत ने कहा था कि सेना को चौड़ी रोड की कोई जरूरत नहीं  है. कोई आवश्यक उपकरण या हथियार हों तो सेना उन्हें हवाई मार्ग से भी सीमा पर पहुंचा सकती है. फैसले में कहा गया है कि अदालत मीडिया को दिये गए इस बयान को इसलिए तवज्जो  नहीं देती है क्यूंकि उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित एचपीसी और उच्चतम न्यायालय के सामने, रक्षा मंत्रालय निरंतर अपने रुख पर कायम है.



फैसले में सेना की जरूरतों को इस तरह पेश किया गया है जैसे कि उन  पर किसी तरह के सोच-विचार या तर्क-वितर्क की जरूरत ही नहीं है. बल्कि इस मामले में सरकार जो कह दे उसे आँख मूँद कर मानने को उक्त फैसला उद्यत दिखता है. रक्षा मंत्रालय द्वारा जो भी दावा सीमाओं की ओर जाने वाली सड़क के बारे में किया गया, उसे सौ फीसदी सच मान लिया गया. जबकि जमीनी हकीकत और न्यायालय में रक्षा मंत्रालय द्वारा किए गए दावों में काफी अंतर है. जैसे रक्षा मंत्रालय द्वारा न्यायालय में दावा किया गया है कि जोशीमठ से मलारी तक का राजमार्ग डबल लेन किया जा चुका है. हकीकत यह है कि इस मार्ग पर जगह-जगह मलबा आया हुआ है, सड़क पर दरारें और भू स्खलन है. पहले जितनी सड़क थी, उसका भी एक हिस्सा नदी में समा चुका है. 






 

फैसला कहता है कि इस न्यायालय के आदेश में बदलाव के रक्षा मंत्रालय के प्रार्थनापत्र को अनुमति दे कर ऋषिकेश से माणा, ऋषिकेश से गंगोत्री और टनकपुर से पिथौरागढ़ तक सड़क को चौड़ा करने की अनुमति दे दी गयी है. लेकिन फिर भी प्रतिवादी चाहें तो इस पूरी परियोजना की चौड़ाई बढ़ाने के लिए उचित कानूनी राहत हासिल करने के लिए स्वतंत्र हैं. 889 किलोमीटर की इस परियोजना में रक्षा के उद्देश्य से महत्वपूर्ण बताए जा रहे सड़क के हिस्से को बेरोकटोक चौड़ा करने की अनुमति देने के बाद भी विद्वान न्यायमूर्ति चाहते हैं कि परियोजना निर्माता  सड़क के उस हिस्से को चौड़ा करने के लिए भी कानूनी राहत आजमाएं, जो सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं.


लेकिन ऐसा कहने के तुरंत बाद ही फैसले में हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट को याद किया गया है कि उक्त कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क के निर्माण में बेहतरीन तौर-तरीके (best practices) नहीं इस्तेमाल किए जा रहे हैं. फैसला कहता है कि एचपीसी की रिपोर्ट में उठाए गए मसलों की तुलना में किए गए उपाय तो ऊपरी सतह पर खरोच भर हैं.


सस्टेनेबल डेवेलपमेंट (sustainable development) शब्द और उसकी व्याख्या करने में फैसले में काफी स्याही खर्च की गयी है. लेकिन पर्यावरण की रक्षा की जरूरत के तमाम बड़े-बड़े उद्धरणों के बावजूद इस सामान्य सवाल का कोई जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी परियोजना में पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) तक नहीं करवाया गया. ईआईए से बचने के लिए ही 889 किलोमेटर की परियोजना को 53 छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा गया है, जिन्हें सरकारी भाषा में 53 “पैकेज” कहा जाता है.


फैसले में इस बात को स्वीकार किया गया है कि पहाड़ को काटने (hill cutting) और मलबा निस्तारण का काम ठीक से नहीं किया जा रहा है. लेकिन ऐसा न करने के लिए किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं, कोई चेतावनी तक नहीं है. बस यह संस्तुति भर है कि केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय बेहतरीन तौर-तरीकों (best practices) का इस्तेमाल करे !


इस तरह देखें तो सड़क चौड़ा करने के लिए पहाड़ को बेधड़क काटने की यह फैसला अनुमति देता है और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उपदेश दे कर काम चलाता है. फैसले में इस बात को रेखांकित किया गया है कि एचपीसी में सरकारी अफसरों और विशेषज्ञों की बहुतायत के बावजूद, उन्होंने इस सड़क के निर्माण में अपनाए गए तौर-तरीकों को ठीक नहीं माना है. गौरतलब है कि एचपीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चार धाम परियोजना का निर्माण कार्य अनियोजित और अवैज्ञानिक तरीके से किया जा रहा है. फैसला कहता है कि जो रवैया सड़क निर्माण में अब तक अपनाया गया, उसे बदलने की जरूरत है. लेकिन गलत रवैया अपना कर पर्यावरण और पहाड़ों को नुकसान पहुंचाने की न तो ज़िम्मेदारी किसी पर आयद की गयी है और ना ही किसी को इसके लिए कोई दंड का प्रावधान किया गया है.


फैसले में एचपीसी की संस्तुतियों पर काफी विस्तार से चर्चा है और उसके सर्वसम्मति वाले हिस्से से, फैसले की भी सहमति प्रतीत होती है. लेकिन सड़क की चौड़ाई बढ़ाने की अनुमति के अतिरिक्त यदि फैसला कुछ करता है तो वह उक्त एचपीसी के कार्यक्षेत्र में कटौती करता है. फैसले में घोषित किया गया है कि ऋषिकेश से माणा, ऋषिकेश से गंगोत्री और टनकपुर से पिथौरागढ़ जैसी रणनीतिक महत्व की सड़कों का अनुश्रवण अब एचपीसी नहीं करेगी.


और इस फैसले से प्राप्त क्या होता है ? सड़क चौड़ा करने की अनुमति के अलावा एक और कमेटी भी इस फैसले से प्राप्त होती है. इस कमेटी को फैसले में ओवरसाइट (oversight) कमेटी कहा गया है. उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अर्जन कुमार सीकरी इसके अध्यक्ष होंगे. फैसले में लिखा है कि पूर्व गठित एचपीसी अपना काम करती रहेगी, लेकिन ऋषिकेश से माणा, ऋषिकेश से गंगोत्री और टनकपुर से पिथौरागढ़ जैसी रणनीतिक महत्व की सड़कों को ओवरसाइट कमेटी देखेगी.


कुल मिला कर फैसले में सरकार की इच्छा के अनुरूप सड़क को चौड़ा करने की अनुमति दी गयी है, लेकिन उसमें पर्यावरण, पर्यावरण संबंधी क़ानूनों और सस्टेनेबल डेवेलपमेंट संबंधी क़ानूनों के लंबे-लंबे उद्धरणों के जरिये स्वयं को पर्यावरण का पक्षधर दिखाने की भी भरसक कोशिश की गयी है.  दो नावों की सवारी का यह करतब करते हुए भी ज़ोर और झुकाव किस तरफ है, यह तो स्पष्ट है ही मी लॉर्ड !


-इन्द्रेश मैखुरी  

 

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1 Comments

  1. किसी भी परियोजना को प्रारंभ करने से पहले उससे जुड़े सभी पक्षों की बात सुनी जानी चाहिए ताकि प्रकरण पर समग्रता से विचार-विमर्श किया जा सके लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होता। इसी से आगे चलकर अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा होती हैं।

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