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बाड़ाबंदी : कुछ फुटकर बातें

 


चीन में असमंजस,उहापोह, हैरानी का माहौल है. वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हो क्या रहा है. आखिर यह क्यूं हुआ ? उनकी जानकारी में तो उनकी सेना लद्दाख में घुसी,उसके बाद अरुणाचल में उन्होंने गाँव बसाया. पर दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय सीमा जैसी बाड़ाबंदी क्यूं हो रही है ? दिल्ली में गाँव बसाने की बात तो उनके ख्वाब में भी नहीं आई. फिर यह घेराबंदी क्यूं ?





अरे मूर्ख चीनियो, ये तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा. ये हमारे छप्पन इंची महाप्रभु  का “मास्टरस्ट्रोक” है. ताजा बजट भी “मास्टरस्ट्रोक” हैजिससे मास्टरों को भी स्ट्रोक आने की संभावना है !


चीनियो तुम अपनी दीवार पर बहुत इतराते रहे आज तक कि तुम्हारी दीवार अन्तरिक्ष से भी दिखाई देती है. लो हमारे छप्पन इंची महाप्रभु  ने दिल्ली की सीमा पर दीवार बना दी. दुनिया चर्चा करेगी इसकी भी. तुम्हारी दीवार की चर्चा यदि नासा करेगा तो नाश में तो हमारी दीवार की चर्चा भी हो ही जाएगी !





और सुनो बे चीनियों, ये 1962 वाला भारत नहीं है,जिसे दुश्मनी करने के लिए तुम्हारी जरूरत हो. अब हम अपने देश में जनता से भी युद्ध छेड़ लेते हैं. ऐसे ही तो थोड़े हैं हम- विषगुरु !

 

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संसद में विपक्षी पार्टियों से छप्पन इंची महाप्रभु ने कहा-मेरी सरकार किसानों से केवल एक फोन कॉल की दूरी पर है. फिर उन्हें ख्याल आया कि यह तो सरकार के रुतबे को,उसके रसूख को खतरे में डालने वाली बात है. वह सरकार भी भला कोई सरकार है,जो जनता से इस कदर करीब आ जाये. माना कि लोकतंत्र है पर इसका मतलब ये थोड़े है कि तंत्र फोन पर लोक का हालचाल पूछता फिरे. लोकतंत्र में यदि लोक और तंत्र की दूरी लोक और परलोक जैसी न हुई तो सरकार का तो रौब-दाब जाता रहेगा !

 

इसलिए खतरे को भाँपते हुए किसानों के प्रदर्शन स्थालों के सारे इंटरनेट कनैक्शन बंद करवा दिये. अब किसान फोन करें और फोन सिर्फ टूँ-टूँ करे तो इसमें सरकार का कोई दोष नहीं. वह किसानों से फोन कॉल की दूरी पर है परंतु कॉल लगने की गारंटी सरकार की नहीं है. 





वैसे भी सरकार के फोन तो जियो के हैं,इसलिए कॉल और सरकार में उतनी ही दूरी है,जितनी किसान की झोपड़ी और 27 मंज़िला एंटिला में है !

 

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प्यारे टैक्स पेयरो, तुम्हारी दूरंदेशी को सलाम है. बीते कुछ सालों से जब तुम विश्वविद्यालय के लड़के-लड़कियों के फीस वृद्धि के आंदोलन पर नाराज़ होते थे तो मेरी क्षुद्र बुद्धि तुम्हारी दूरंदेशी को समझ नहीं पाती थी. तुम कहते थे कि तुम्हारे भरे टैक्स के पैसे से ये लड़के-लड़कियां पढ़ने लिखने के बजाय शिक्षा को सस्ती करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं,राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर चर्चा कर रहे हैं, यह फिजूल खर्ची है. कई नामुराद समझते हैं कि शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार जैसी चीजें सस्ती होनी चाहिए. तुम इसे निहायत ही अहमकाना विचार समझते रहे और ऐसा सोचने वालों को गरियाने के लिए अपना खून वैसे ही जलाते रहे,जैसे ये लौंडे तुम्हारे टैक्स के पैसे को उड़ाते रहे !


लेकिन अब दिल्ली में जो बाड़ाबंदी हो रही है,उससे तुम्हें पहली बार महसूस हुआ होगा कि तुम्हारे टैक्स के पैसे का सही उपयोग हो रहा है. शिक्षा-फिक्षा पर क्या पैसा बर्बाद करना ! ऐन राजधानी के दरवाजे पर भरपूर बाड़ाबंदी के साथ जो बार्डर बना है,वही तो है असली विकास ! इसी के लिए तो आदमी टैक्स चुकाता है. 70 साल तक ये देश इतना पिछड़ा था कि बार्डर भी बेहद पिछड़े इलाकों में थे. बेचारा टैक्स पेयर बार्डर की रक्षा के लिए टैक्स तो देता था पर ये नहीं जान पाता था कि उसके पैसे का सही उपयोग हुआ कि नहीं हुआ. 




अब ठीक दिल्ली के मुहाने पर बार्डर बन रहा है तो टैक्स पेयर जा कर देख भी सकते हैं कि सड़क खोद कर सीमेंट-गारे का मसाला भरने में पूरा टैक्स वसूल हुआ या नहीं. लगे कि कुछ बच गया तो एक-आध बंकर अपने घर के आगे भी खुदवा सकते हैं ! विषगुरु बनना है तो दीवारें और खंदक बहुत जरूरी हैं.


-इन्द्रेश मैखुरी

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