cover

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के नाम खुला पत्र






आदरणीय मुख्यमंत्री जी,


                    आज अखबारों में पढ़ा कि एक पत्रकार को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. उसी खबर से यह भी पता चला कि दो और पत्रकार कहे जाने वाले लोग इस केस में नामजद हैं.




इससे पहले कि बात और आगे बढ़े और कोई अन्य कयास लगाया जाये,मैं स्पष्ट कर दूँ कि जो दो और नाम,इसमें लिखे गए हैं,मैं उनके तौर-तरीके का कायल नहीं हूँ. जिनको गिरफ्तार किया गया है,वे तो अभी कुछ दिन पहले तक देहारादून जिले के पुलिस अफसरों की प्रशंसा के लिए ही पहला पन्ना सुरक्षित रखते थे.

लेकिन अखबारों में छपी एक बात मेरी समझ में नहीं आई,मुख्यमंत्री जी. अखबारों में लिखा है कि ये सब मुख्यमंत्री पर झूठा आरोप लगाते हुए प्रदेश सरकार को अस्थिर करना चाहते थे. मैं यह समझ नहीं पाया कि जो आरोप झूठे बताए जा रहे हैं,वे इतने ताकतवर कब से हो गए कि उनके ज़ोर से सरकार अस्थिर हो जाएगी ?

70 में 57 चुने हुए विधायकों वाली सरकार और उसका मुखिया,इस कदर कमजोर है कि कुछ लोग यहाँ-वहाँ कुछ बोलेंगे,घंटों फ़ेसबुक पर एकालाप करेंगे और सरकार का सिंहासन डोलने लग जाएगा ?  अगर सरकार की ऐसी समझदारी है तो फिर यह इनकी ताकत से कहीं ज्यादा तो सरकार की कमजोरी की स्वीकारोक्ति है.

इस प्रदेश में बहुतेरे लोगों को यह मुगालता है कि इन हजारात में से एक-आध जो हैं,प्रदेश में गर कोई मसीहा हैं तो बस वही हैं. सरकार बहादुर महसूस करती है कि सरकार को यदि हिला रहे हैं तो यही हिला रहे हैं. हुजूर जैसे मुगालते में इनको मसीहा समझने वाले हैं,वैसे ही मुगालते में आप और आप की सरकार भी हैं !  तब तो इनके खिलाफ हो कर भी आप इनके समर्थकों की धारणा को ही पुष्ट कर रहे हैं  !

यह स्पष्ट कर देने के बाद कि मैं उक्त महानुभावों के तौर-तरीकों का कायल नहीं,यह कह देना जरूरी हो जाता है कि बात-बेबात राजद्रोह जैसी धारा के प्रयोग का समर्थन किसी सूरत में नहीं किया जा सकता. यहाँ उस बहस में मैं नहीं जा रहा हूँ कि राजद्रोह ब्रिटिशकालीन धारा है और अब उसके प्रयोग का ही कोई औचित्य नहीं है. वह तो बड़ी बहस है और उस बात के स्तर से बहुत ऊंची है,जिससे फिलहाल हम दो-चार  हैं.

लेकिन यह ज़ोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मत विरोध और घनघोर विरोधी राय रखने पर भी राजद्रोह का ठप्पा सिर्फ इस आधार पर नहीं लगा दिया जाना चाहिए कि कोई अतिशयोक्ति पूर्ण विरोधी मत सत्ता के विरुद्ध है. लिखने-बोलने की स्वतंत्रता,संवैधानिक रूप से देश के हर नागरिक को हासिल है. किसी सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समेत किसी अधिकार के मामले में सेलेक्टिव(selective) नहीं हुआ जा सकता.

मेरी चिंता उक्त महानुभाव नहीं हैं. संभवतः उन्हें मेरी चिंता की आवश्यकता भी न हो.मैंने जैसा पहले कहा कि मैं उनका कायल भी नहीं और वैचारिक रूप से देखेंगे तो वे आपके ज्यादा करीब पाये जाएंगे. उनमें से कतिपय महानुभाव तो आपका विरोध करते हुए भी आपकी पार्टी के अन्य नेताओं-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रशंसक मालूम पड़ते हैं.

मेरी चिंता यह है कि अभी जिस प्रवृत्ति के प्रारम्भिक लक्षण दिख रहे हैं,कल को बढ़ते-बढ़ते वह किसी भी वाजिब तरीके से लिखने-बोलने वाले के गिरेबान तक पहुँच सकती है. मैं समझता हूँ कि यह, वो बुनियाद रखी जा रही है,जिसे अभी रोका नहीं गया तो किसी के लिए भी सत्ता की वाजिब-स्वस्थ आलोचना करना भी  जघन्यतम अपराध की श्रेणी में रख दिया जाएगा. यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए स्वस्थ लक्षण नहीं हैं.  

इसलिए आप से निवेदन है कि अपने हाथ रोकें, इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएँ.

देखिये ना, अभी जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब आज का अखबार मेरी नजरों के सामने है. उसमें एक खबर पर गौर कीजिये. बागेश्वर जिले में तैनात पी.सी.एस. अफसर हैं राहुल गोयल, जो इन दिनों जिलाधिकारी का प्रभार भी देख रहे हैं.



कल शाम जब वे घायल हो गए तो दो जिले पार करके,तीसरे जिले में उन्हें इलाज मिल सका. अफसरों की जब यह दशा है तो  आम जन की क्या स्थिति होगी ? क्या आप समझते हैं कि ऐसे हालात से दो-चार होने वालों को भड़काने के लिए घंटों तक चलने वाले किसी “एकतरफा प्रलाप” की आवश्यकता है ?  

जिसके पास सत्ता होती है,वह कुछ भी कर सकता है. लेकिन खूबी ताकत का बेतरतीब इस्तेमाल करने में नहीं है. बात तो तब है कि ताकत का प्रदर्शन करते हुए अधिकतम संयम उपयोग में लाया जाये. आपराधिक आरोपों के लिए होने वाली गिरफ्तारी विधि सम्मत तो कम से कम दिखनी ही चाहिए. ऐसा न हो कि पुलिस की कानूनी कार्यवाही और अपहर्ताओं की गैर कानूनी हरकत का भेद ही मिट जाये !

अतः निवेदन है कि शक्ति के अतिशयोक्ति पूर्ण उपयोग के बजाय ताकत और ध्यान प्रदेश की जनता के जीवन में मुंह बाए खड़े शिक्षा,रोजगार,स्वास्थ्य जैसे सवालों के प्रभावी समाधान पर केन्द्रित किया जाये. किसी सत्ता के लिए यदि कोई खतरा है तो वह है जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाना. यदि जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे होंगे तो बड़े-से-बड़े रथी-महारथी भी बाल बांका नहीं कर सकेंगे. यदि जनता की जीवन स्थितियों में सुधार नहीं होता तो हालात ऐसे हो जाते हैं कि अपने सायों और प्रतिरूपों से भय लगने लगता है. ऐसे अतीत में बहुतेरे उदाहरण मिल जाएँगे.

लिखने-बोलने की अधिकतम आजादी का समर्थन करते हुए,आप से निवेदन है कि इन बातों पर गौर फरमाएँ.

इस राज्य की जनता के हितैषियों में से एक

इन्द्रेश मैखुरी



Post a Comment

2 Comments