वरवर राव तेलगु भाषा में कविता करते हैं. वे पी.एच.डी
हैं. उनके पी.एच.डी. थीसिस का विषय था- तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष और इतिहास. 40 साल
तक विभिन्न कॉलेजों में उन्होंने तेलगु साहित्य पढ़ाया. लेकिन वे फकत अध्यापक नहीं रहे
बल्कि अध्यापन के वर्षों में भी संघर्षों में,वंचित तबकों के संघर्ष
के साथ निरंतर रहे.
बीते दो सालों से भीमा कोरेगांव केस में वे जेल में हैं.
लेकिन इस समय जो खबरें आ रही हैं,वे चिंताजनक है. बताया जा रहा है
कि उनकी तबियत बेहद खराब है. कल उनके परिजनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके उनकी बिगड़ती
सेहत को लेकर चिंता जताई है. बीती 28 मई को भी तबियत खराब होने के बाद राव को मुंबई
के जे.जे अस्पताल में भर्ती किया था. उसके बाद उनकी जमानत की अर्जी लगाई गयी थी पर
एन.आई.ए. ने उनकी जमानत अर्जी का विरोध किया और अदालत ने जमानत नहीं दी.
देश में कहने को एक शक्तिशाली सरकार है. लेकिन उसे छात्र-युवाओं
से डर लगता है,उसे उम्र की ढलान पर खड़े बुद्धिजीवी,लेखक,पत्रकार,वकील और कवियों से
भी भय है. भीमा कोरेगांव केस में जीतने लोग गिरफ्तार किए गए हैं,उनमें से अधिकांश 60 वर्ष पार हैं. वरवर राव 81 वर्ष के हैं. बताया जा रहा
है कि जेल में वे इस कदर अशक्त हो चुके हैं कि बोल भी नहीं पा रहे हैं,न चल पा रहे हैं. फिर भी भारत की महाशक्तिशाली सत्ता को लगता है कि ये बूढ़ा
कवि उसके लिए घातक हो सकता है. इसलिए वो,कवि को छोड़ने को तैयार
नहीं है. गुलजार,मंगलेश डबराल,अशोक वाजपेयी
समेत चालीस कवि सरकार से वरवर राव की रिहाई की अपील कर चुके हैं.
वरवर राव की कवितायें देखें तो लगता है कि गिरफ्तारी की
वजह भी बता रहे हैं और गिरफ्तार करने वालों के डर को भी अनावृत कर रहे हैं. लोगों को
भड़काने के आरोपों से इंकार भी कर रहे हैं और यह ऐलान भी कर रहे हैं कि कवि निकले,न निकले,कविता तो सलाखों से बाहर निकल ही आएगी और लोगों
तक पहुंचेगी भी.
गिरफ्तार किए जाने के संबंध में “कवि” शीर्षक वाली कविता
में वरवर राव कहते हैं :
जब प्रतिगामी युग धर्म
घोंटता है वक़्त के उमड़ते बादलों का गला
तब न ख़ून बहता है
न आँसू।
वज्र बन कर गिरती है बिजली
उठता है वर्षा की बूंदों से तूफ़ान…
पोंछती है माँ धरती अपने आँसू
जेल की सलाखों से बाहर आता है
कवि का सन्देश गीत बनकर।
कब डरता है दुश्मन कवि से?
जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हिं
वह कै़द कर लेता है कवि को।
फाँसी पर चढ़ाता है
फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार
दूसरी ओर अमरता
कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदयों में.
यूं तो यह कविता 1985 में लिखी गयी है. लेकिन अपने समय
से आगे भी प्रासांगिक बना रहना,उसकी सार्वत्रिकता ही तो कविता-साहित्य
की ताकत है.
“चिंता” शीर्षक वाली कविता में वे कहते हैं :
मैंने बम नहीं बाँटा था
ना ही विचार
तुमने ही रौंदा था
चींटियों के बिल को
नाल जड़े जूतों से।
रौंदी गई धरती से
तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा
मधुमक्खियों के छत्तों पर
तुमने मारी थी लाठी
अब अपना पीछा करती मधुमक्खियों की गूँज से
काँप रहा है तुम्हारा दिल!
आँखों के आगे अंधेरा है
उग आए हैं तुम्हारे चेहरे पर भय के चकत्ते।
जनता के दिलों में बजते हुए
विजय नगाड़ों को
तुमने समझा था मात्र एक ललकार और
तान दीं उस तरफ़ अपनी बन्दूकें…
अब दसों दिशाओं से आ रही है
क्रान्ति की पुकार
कवि पर जो लोगों को भड़काने का आरोप है,उसके जवाब में वह इस कविता में दमनकारी
सत्ता को ही “चार्जशीट” पकड़ा देते हैं कि जो भी विक्षोभ है,विरोध है,प्रतिवाद है,वह तो सत्ता
के दमन-उत्पीड़न का नतीजा है. सत्ता के विरुद्ध उठती आवाजें,कवि
के भड़काने से नहीं पैदा हुई,वे तो सत्ता द्वारा थोपी गयी हिंसा
के जवाब में उठ खड़ी हुई हैं.
कवि अपनी बिरादर कवियों से कहता है
कि कवि का काम है कि वो सच बोले,जैसा घटित हो रहा है,वैसा प्रकट करे
:
जीवन का बुत बनाना
काम नहीं है शिल्पकार का
उसका काम है पत्थर को जीवन देना।
मत हिचको, ओ, शब्दों के जादूगर!
जो जैसा है, वैसा कह दो
ताकि वह दिल को छू ले
लोगों को उजाड़ने वाले विनाशकारी विकास के मॉडल और
उसके खिलाफ जनता के प्रतिरोध को “स्टील प्लांट” शीर्षक कविता में वरवर राव रेखांकित
करते हैं :
समुद्रों में मछुआरों के मछली मार अभियान को
तबाह करते हुए
एक इस्पाती वृक्ष स्टील प्लांट आ रहा है ।
उस प्लांट की छाया में आदमी भी बच नहीं पाएंगे
झुर्रियाँ झुलाए बग़ैर
शाखाएँ-पत्तियाँ निकाले बग़ैर ही
वह घातक वृक्ष हज़ारों एकड़ में फैल जाएगा ।
गरुड़ की तरह डैनों वाले
तिमिगल की तरह बुलडोजर
उस प्लांट के लिए
मकानों को ढहाने और गाँवों को खाली कराने के लिए
आगे बढ़ रहे हैं ।
खै़र, तुम्हारे सामने वाली झील के पत्थर पर
सफ़ेद चूने पर लौह-लाल अक्षरों में लिखा है
"यह गाँव हमारा है, यह धरती हमारी है--
यह जगह छोड़ने की बजाय
हम यहाँ मरना पसन्द करेंगे"
महिला मुक्ति के सवाल को “औरत” शीर्षक कविता
में वरवर राव संबोधित करते हैं :
ऎ औरत !
वह तुम्हारा ही रक्त है
जो तुम्हारे स्वप्न और पुरुष की उत्कट आकांक्षाओं को
शिशु के रूप में परिवर्तित करता है
ऎ औरत !
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो भूख और यातना से संतप्त शिशु में
दूध बन कर जीवन का संचार करता है
और
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो रसोईघर में स्वेद
और खेत-खलिहानों के दानों में
मोती की तरह दमकता है
फिर भी
इस व्यवस्था में तुम मात्र एक गुलाम
एक दासी हो...........
ऎ औरत !
इस व्यवस्था में इससे अधिक तुम
कुछ और नहीं हो सकतीं
तुम्हें क्रोध की प्रचंड नीलिम में
इस व्यवस्था को जलाना ही होगा
तुम्हें विद्युत-झंझा बन
अपने अधिकार के प्रचंड वेग से
कौंधना ही होगा
“मैं कसाई हूँ” शीर्षक कविता के जरिये वे व्यवस्था
में बैठे हुए असली कसाइयों के चेहरों की शिनाख्त करते हैं :
मैं कसाई हूं
अपनी
आजीविका के लिए
पशुओं को
मारनेवाला
आदमी को
मारने पर तो मिलते हैं
पद, पुरस्कार, तमगे
मंत्री के हाथों
उस दिन
जाना मैंने
असली
कसाई कौन है
जिन्होंने 80
बरस से अधिक के इस बूढ़े कवि को कैद किया हुआ है,उनके भय को यह कवि बखूबी पहचानता है. कवि के हवाले से आप भी कवि को कैद करने
वालों के भय को जानिए जरा :
धमकी पर धमकी देते हुए
डर पर डर फैलाए
वह खुद डर गया
वह निवास स्थान से डर गया
वह पानी से डर गया
वह स्कूलों से डर गया
वह हवा से डर गया
आज़ादी को उसने बेड़ियां पहना दीं
मगर हथकड़ियां खनकी
वह उस आवाज से डर गया
डर पर डर फैलाए
वह खुद डर गया
वह निवास स्थान से डर गया
वह पानी से डर गया
वह स्कूलों से डर गया
वह हवा से डर गया
आज़ादी को उसने बेड़ियां पहना दीं
मगर हथकड़ियां खनकी
वह उस आवाज से डर गया
संघर्ष के तमाम झंझावातों के बीच
कवि की निगाह वसंत पर है,उसको उम्मीद है वसंत के आने की. कवि कहता है “वसंत कभी
अकेले नहीं आता” :
वसन्त कभी अकेले नहीं आता
गर्मियों के साथ मिलकर आता है
झड़े हुए फूलों की याद के करीब
नई कोंपलें फूटती हैं
वर्तमान पत्तों के पीछे अदृश्य भविष्य जैसी कोयल विगत विषाद की
मधुरता सुनाती है
निरीक्षित क्षणों में उगते हुए
सपनों की अवधि घटती है
सारा दिन तवे-से तपे आकाश में
चंद्रमा मक्खन की तरह शायद पिघल गया होगा
मुझे क्या मालूम
चांदनी कभी अकेले नहीं आती
रात को साथ लाती है
सपने कभी अकेले नहीं आते
गहरी नींद को साथ लाते हैं
गिरे हुए सूर्य बिंब जैसे स्वप्न से छूटकर भी
नींद नहीं टूटती
सुख कभी अकेले नहीं आता
पंखों के भीतर भीगा भार भी
कसमसाता है !
गर्मियों के साथ मिलकर आता है
झड़े हुए फूलों की याद के करीब
नई कोंपलें फूटती हैं
वर्तमान पत्तों के पीछे अदृश्य भविष्य जैसी कोयल विगत विषाद की
मधुरता सुनाती है
निरीक्षित क्षणों में उगते हुए
सपनों की अवधि घटती है
सारा दिन तवे-से तपे आकाश में
चंद्रमा मक्खन की तरह शायद पिघल गया होगा
मुझे क्या मालूम
चांदनी कभी अकेले नहीं आती
रात को साथ लाती है
सपने कभी अकेले नहीं आते
गहरी नींद को साथ लाते हैं
गिरे हुए सूर्य बिंब जैसे स्वप्न से छूटकर भी
नींद नहीं टूटती
सुख कभी अकेले नहीं आता
पंखों के भीतर भीगा भार भी
कसमसाता है !
वसंत आए,सबका हो,सबके लिए आए,यह साझा संघर्षों से ही होगा. संघर्षों के ताप के इस कवि की रिहाई का वसंत
भी आए,यह तत्काल जरूरी है.
वरवर राव को रिहा करो
!
-इन्द्रेश मैखुरी
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