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रोजगार वर्ष में रोजगार कैसे-कैसे !

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2019-20 को रोजगार वर्ष घोषित किया था. रोजगार वर्ष की अवधि मार्च 2019 से शुरू हुई. इस तरह इस मार्च के महीने के समाप्त होने के साथ रोजगार वर्ष भी निपट जाएगा. कितने नेक इरादे थे सरकार के ! एक पूरे साल को कह दिया- जा तू रोजगार का साल है. पड़ोसी राज्य वाले यदि शहरों का नाम बदल कर सुर्खियां बटोर रहे हैं तो उन्नीस हमारे वाले भी नहीं हैं. वे शहरों के नाम बदलने वालों से चार हाथ आगे बढ़ गए और एक पूरे साल का ही नामकरण कर डाला-रोजगार वर्ष. 


आंकड़ों और संख्याओं में उलझे रहने वाले नादानों को सरकार का साल के  नामकरण का आइडिया ही समझ नहीं आया. वे पिले पड़े हैं आंकड़ों पर ! कहते हैं 56 हजार पद खाली हैं,प्रदेश में. बेरोजगारी की दर 2003-04 में 2.1 प्रतिशत थी,अब बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गयी है. अरे नाशुक्रों, देश आगे बढ़ रहा है,प्रदेश आगे बढ़ रहा है. डबल इंजन की सरकार है. जब सब कुछ बढ़ रहा है तो बेरोजगारी आंकड़ा भी डबल हो गया तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ! दरअसल, ये आंकड़े वाले लोग सरकार को समझते नहीं हैं. आंकड़े तो संख्या है,सरकार प्रैक्टिकल है. वह ऐसी-ऐसी जगह और ऐसे-ऐसे रोजगार पैदा करती है कि सारे आंकड़ा शास्त्री धराशायी हो जाते हैं. 

अब देखिये पिछले दिनों फॉरेस्ट गार्ड की भर्ती परीक्षा हुई. तीन साल पहले इस परीक्षा के फॉर्म भरे गए थे. फॉर्म निकालने वाले,फॉर्म बेचने वाले और फॉर्म  भरने वाले भूल चुके थे,इस परीक्षा के बारे में. तभी सरकार की तेज बुद्धि में यह बात आई कि रोजगार वर्ष घोषित किया हुआ वर्ष अपने अंत की ओर बढ़ रहा है.  तो रोजगार वर्ष को रोजगार देने के लिए सरकार ने 16 फरवरी को यह परीक्षा करवा डाली. 

कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि परीक्षा में नकल हुई.नहीं भाई वह नकल नहीं थी,वो तो सरकार का रोजगार एक्सटैन्शन का कार्यक्रम था. पदों की संख्या  निश्चित है,उससे ज्यादा भर्ती कर नहीं सकते. लेकिन बेरोजगार बहुत हैं. सरकार का मुख्य उद्देश्य पद भरना नहीं रोजगार देना है. लोग आरोप लगा रहे हैं कि कोचिंग सेंटर वालों ने परीक्षा में ब्लुटूथ डिवाइस की मदद से नकल कराई. गलत बात. धंधा मंदा चल रहा था कोचिंग सेंटर वालों का. मक्खियाँ मार रहे थे बेचारे. 

अचानक परीक्षा घोषित हुई और कमजोर अभ्यर्थी मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे उनके चारों ओर. इन कमजोर अभ्यर्थियों की कमजोरी से द्रवित हो गए बेचारे कोचिंग सेंटर वाले और ले लिए उनसे 5-7 लाख रुपये और कर लिया पास कराने का ठेका. तो इसमें इतनी हायतौबा क्यूँ,कमज़ोरों की मदद में कुछ लाख रुपये ही तो रखे अंदर ! और सरकार का रोजगार देने का अंदाज तो देखो,नामुराद आंकड़ेबाजो ! सरकार ने पदों पर भर्ती में पास होने के साथ ही पास करवाने के ठेकेदारों के लिए भी रोजगार के द्वार खोले ! सरकार बड़ी कारसाज़ है. वह सही-गलत, पाप-पुण्य,कानूनी-गैरकानूनी के फेर में नहीं पड़ती. कानूनी रोजगार सृजन करती है तो गैरकानूनी रोजगार की गुंजाइश भी बनाती है !

और रोजगार देने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. इस फॉरेस्ट गार्ड परीक्षा के खिलाफ लड़के धरने पर बैठे हैं. तम्बू लगेगा तो तम्बू वाले को रोजगार मिलेगा,बाहर से लड़के देहारादून में आकर रहेंगे तो धर्मशाला,होटल वालों का धंधा चलेगा. आप समझते हैं सरकार सुन नहीं रही ?नहीं आप गलत समझते हैं. सरकार तो बेरोजगारों के इर्दगिर्द रोजगार का जाल बुन रही है ! 

इतना ही नहीं सरकार अपने प्रदेश के युवाओं को मजबूत भी बना रही है. बरसों-बरस परीक्षा की तैयारी करने के लिए ही कड़ा जिगर चाहिए. फिर परीक्षा हुई,पर्चा लीक हो गया और योग्यता धरी रह गयी ! तो इतने के बाद भी जो बचा रह जाएगा,वह तो मजबूत ही होगा ना ! उसके बाद  सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए टंकी या मोबाइल टावर पर चढ़ना होगा. भारी भरकम पुलिस फोर्स को चकमा दे कर टंकी या टावर पर चढ़ने वाले युवाओं  का यह कृत्य इनकी शारीरिक दक्षता की परख भी तो करवाता है. इतनी दूरंदेश है,सरकार ! देखिये तो सरकारी रोजगार के अलावा कैसा-कैसा रोजगार सृजित कर रही है ! पर हाय री कमनसीबी,कोई मुआ आंकड़े वाला ऐसे रोजगारों को रोजगार के आंकड़े में दर्ज न करेगा !

लेकिन, इससे सरकार का रोजगार देने के प्रति जो कमिटमेंट है,वो कतई कम नहीं होता. सरकार का अंग-प्रत्यंग रोजगार को रेवड़ियों की तरह बांटने में लगा रहता है.रोजगार वर्ष है,भाई ! तो रोजगार  घर- घर पहुंचाना है ! जब घर-घर पहुंचाना है तो क्यूँ न अपने घर से शुरुआत की जाये ! ऐसा ही सोचा अपना अस्तित्व देवस्थानम बोर्ड के हाथों गंवा चुकी बद्री-केदार मंदिर समिति के मुखिया जी ने. समिति और मुखिया दोनों भूतपूर्व हो चुके हैं पर कारनामा उनका अभूतपूर्व है. समिति और उसके मुखिया पद के अस्तित्व में न रहने के बावजूद सरकार के रोजगार वर्ष का नारा उनकी आँखों से ओझल न हुआ और उन्होने अपने पद के अस्तित्व में न रहने के बावजूद नियुक्तियाँ कर डाली. 

लोग कह रहे हैं कि अपने रिशतेदारों को नियुक्त कर दिया. धनधान्य परिपूर्ण आदमी हैं,वे. रुपये-पैसे,माल-असबाब की कोई कमी नहीं. ऐसे में यह भी कोई अच्छा बात है कि ऐसे व्यक्ति के रिश्तेदार बेरोजगार रहें ! यह तो दीपक तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी. वे जिस कमेटी के मुखिया थे वहाँ तो चलन देवता के दीपक के घी से खुद की दाल फ्राई करने का रहा है .  उन्होंने भी चलन निभा डाला.उन्होने अपनी साली की बेटी,भाई की साली और बेटे के साले को नियुक्ति दी.  बेरोजगारो, कथा के सार को समझो. मुखिया जी की साली की बेटी,भाई की साली,बेटे के साले से रश्क मत करो.  राजनीतिक पार्टियों के डंडे-झंडे उठाने और जिंदाबाद के नारे लगाने से बात नहीं बनेगी. पार्टियों में अपने लिए जीजा तलाश करो. बेरोजगारी के इस अथाह सागर से जीजा ही पार लगा सकता है !

इन सब घटनाओं पर कुछ लोग कहते हैं कि इस सरकार का तो नारा था-“भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टौलरेंस” और यहाँ तो भ्रष्टाचार हो रहा है. अरे भाई भ्रष्टाचार हो रहा है तो अब नारा भी न लगाए सरकार ! हकीकत में न लड़ सकें तो कम से कम नारे में तो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ते दिखना चाहिए. और सोचिए भ्रष्टाचार की क्या इज्जत रह जाएगी अगर सरकार सरेआम ऐलान कर दे कि सरकार उसके साथ है ?उस बेचारे का तो अस्तित्व ही मिट जाएगा ! किसी नारे का आकर्षण ही तब है,जबकि जिसके खिलाफ वह लगाया जा रहा है,उसका अस्तित्व बदस्तूर कायम रहे. लोगों ने गरीबी हटाओ का नारा दिया.नारा देने वाले हट गए पर गरीबी नहीं हटी. यही नारे की सार्थकता है. नारा शाश्वत है और उसे देने वाले क्षण भंगुर.   

रोजगार वर्ष के अंत होते-होते उत्तराखंड सरकार के तीन साल पूरे होने को हैं. इस अवसर के लिए सरकार ने नारा गढ़ा- “ उत्तराखंड : विकास के तीन साल :बातें कम,कम ज्यादा.” क्या बात कह डाली सरकार बहादुर ! जिस राज्य में काम ही कुल जमा बतोलेबाजी का हो,सारा कारोबार बातों का ही हो,वहाँ बातें ही न रहेंगी  तो बचेगा क्या ? यह तो शरीर से प्राण निकाल देने जैसा है. राज्य के शरीर में बातों की ही तो प्राणवायु थी,जिसकी रौनक उसके चेहरे पर नजर आती है. 

पिछली हुकूमत में बातों की चाशनी हर वक्त आंच पर चढ़ी रहती थी तो राज्य भी उसके अहसास में पगा रहता था. नयी हुकूमत आई और बातों का सूखा पड़ गया. अब सरकार बहादुर चाहते हैं कि उनकी चुप्पी का जश्न मनाया जाये,चुप्पी के कसीदे पढे जाएँ. हमारे यहाँ कहावत है कि गुड़ न दे सको तो गुड़ जैसी बात ही दे दो. गुड़ तो अपने-अपनों के लिए सुरक्षित है और गुड़ जैसी बात न देने का जश्न होने को है.देने को आपके पास भी रोजगार का गुड़ नहीं है तो रोजगार वर्ष की गुड़ जैसी बात से ही आप भी कारोबार चला रहे हो ,सरकार बहादुर !

                                                                                                                              - इंद्रेश मैखुरी

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