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कानून वापसी का संकेत : समाधान चाहिए तो हार का खौफ पैदा करो

 







 

उत्तराखंड में देवस्थानम बोर्ड अधिनियम भी केंद्र सरकार के कृषि क़ानूनों की गति को प्राप्त हो गया. इस कानून को उत्तराखंड की भाजपा सरकार द्वारा वापस ले लिया गया.











जब 2019 में यह कानून तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत द्वारा बनाया गया तो उस समय भाजपा के नेताओं ने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की, जैसे कि इससे पहले मंदिरों को संचालित करने संबंधी कोई कानून ही अस्तित्व में नहीं था और सरकार पहली बार ऐसा कानून लायी. जबकि हकीकत यह थी कि बद्रीनाथ-केदारनाथ के लिए 1939 से बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति अधिनियम से अस्तित्व में था.


देवस्थानम बोर्ड के संदर्भ में जानने के लिए इस लिंक पर जाएं : https://www.nukta-e-najar.com/2021/06/genie-of-devsthanam-board-out-of-bottle.html



भाजपा का यह भी अजब खेल है कि जब कानून पास होता तब भी वे उसके समर्थन में जमीन आसमान एक कर देते हैं और जब वही कानून वापस होता है तब भी वे उसके कसीदे, उसी शिद्दत से पढ़ते हैं.


मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देवस्थानम बोर्ड अधिनियम वापस लेने की घोषणा करते हुए बयान दिया कि चारधाम से जुड़े लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया है. तो क्या जब कानून बनाया था,तब इन सब का अहित ध्यान में रखते हुए बनाया था,मुख्यमंत्री जी ? धर्मस्व और संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज का बयान है कि जनभावनाओं का सम्मान करते हुए, यह स्वागत योग्य कदम है. मंत्री जी जिस समय कानून बना,उस समय भी आप इसी विभाग के मंत्री थे,जब कानून वापस हुआ तब भी इसी विभाग के मंत्री हैं. अब यदि कानून वापसी जनभावनाओं का सम्मान है तो जब बना था तब आपने जनभावनाओं का सम्मान क्यूं किया था ? केंद्रीय रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने भी देवस्थानम बोर्ड एक्ट वापस लेने की तारीफ की. जिस सरकार ने कानून बनाया, वह भाजपा की और जिसने कानून वापस लिया,वह भी भाजपा की और गजब ये कि कानून बनाना और वापस लेना, दोनों, तारीफ के काबिल काम !


भाई भाजपा वालो, यह तो बताओ कि यह कानून पास कराना आपकी सरकार की सबसे बड़ी युगांतकारी कार्यवाही थी तो वही कानून वापस लेना उतनी ही युगांतकारी उपलब्धि कैसे है ?


लेकिन केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानून वापसी और उत्तराखंड सरकार द्वारा देवस्थानम एक्ट की वापसी के जो संकेत हैं, उन्हें भी समझा जाना चाहिए. दोनों ही मामलों में साम्यता यह है कि भाजपा को महसूस हो रहा था कि ये कानून उसकी हार के सबब बनेंगे. इसका आशय यह है कि यदि हार का डर न हो तो भाजपा कैसा भी जन विरोधी कृत्य कर सकती है, कैसा भी जन विरोधी कानून बना सकती है ! और कुर्सी पर खतरा मंडराएगा तो उसे बचाने के लिए उतनी ही विपरीत दिशा में किसी भी हद तक जा सकती है. लोकतंत्र की यह चुनाव समर्पित- चुनाव का,चुनाव के लिए- वाली नयी परिभाषा भाजपा गढ़ रही है.


सत्ता में बैठे लोगों का समग्र चिंतन केवल चुनाव केन्द्रित होना, देश और लोकतंत्र के लिए बेहद घातक है. इस संकीर्ण दृष्टिकोण से देश और प्रदेश को उबारने की जरूरत है.


लेकिन इन दो फैसलों को अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए यही सबक है कि वह चाहिए रोजगार का प्रश्न हो या नियमितीकरण का, इन आंदोलनकारियों को सरकार में यह भय उत्पन्न करना होगा कि यदि उनकी मांगें नहीं मानी गयी तो चुनावी कीमत सरकार को चुकानी पड़ेगी. तमाम वाजिब मांगों के लिए चलने वाले आंदोलनों को अपनी ताकत को इस दृष्टि से एकजुट करना चाहिए.


-इन्द्रेश मैखुरी

 

 

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